Wednesday, October 28, 2020

ज्ञानद्रिय और कर्मेंद्रिय की धारें !!............

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19 - ज्ञानद्रिय और कर्मेंद्रिय की धारें

     स्थूल शरीर , इंद्रियों और छः पो का सप काम दो मुख्य धारों की मारफेत चलता है जिनका हाल मुरतसर तौर पर नीचे लिखा जाता है ।

     पहली अंतर्मुखी धार - जो नक्श बाहर से ज्ञानेंद्रियों पर पड़ते हैं उनको यह धार अंदर पहुँचाती है और शरीर के पालन पोषण व पढ़ने के लिये जान भी इसी धार की मारफत मिलती है । यह मुरत की धार है और अंतर्मसी और आकर्षक है । इसका इजहार खास कर दो रूपों में होता है , जिनमें से एक को बोधनात्मक ( Sensory ) और दूसरे को रचनात्मक (Structural) कहते हैं । बोधनात्मक का मतलब बोधन यानी शान कराने वाला और रचनात्मक का मतलब शरीर रचने या तैयार करने वाला है । अब्बल किस्म का इजहार मानसिक क्रियाओं वाले सब जानदारों के अंदर देखने में भाता है । ये क्रियाएँ रगों और दूसरी सूक्ष्म नालियों की मारफत हुमा करती हैं । सुरत - धार का बोधनात्मक अंग रचनात्मक अंग के मुकाबले में ऊँचा दर्जा रखता है । इस पुस्तक के रचना भाग में इस अंग के मुतमल्लिक हम मुफस्सल जिक्र करेंगे । रचनात्मक अंग अग नीचा दर्जा रखता है ताहम रचना के काम के लिये यह निहायत जरूरी है । भागे चल कर रचना के बयान पपान में इन दोनों अंगों में जो परस्पर संबंध है उसका भी मुफस्सल बयान करेंगे । जानदारों के अंदर दूसरा अंग पहले अंग के पासरे ही काम करता है क्योंकि उनके स्थूल और सूक्ष्म घाटों से बोधनात्मक अंग बिलकुल जाते रहने पर रचनात्मक अंग का भी काम बंद हो जाता है और आखिरकार शरीर मुर्दा हो जाता है ।

      दूसरी बहिर्मुखी धार - इसका काम मन के अंदर इरादा कायम करना ( इच्छा उठाना ) , देह और इंद्रियों का चलाना , खुजले का खारिज करना और संहार - क्रिया करना है । मनुष्य - शरीर में सब बहिर्मुखी इंतजाम - शारीरिक व मानसिक - इसी धार की मारफत होता है । यह घार मन से प्रकट होती है । वनस्पति - योनि में इरादे यानी इच्छा की क्रिया का बिलकुल अभाव रहता है और देह का चलाना सिर्फ शरीरपृद्धि यानी जिस्म के पढ़ने की शक्ल में दिखलाई देता है मगर बाकी के दो खवास पानी फुजला निकालने और संहार करने के काम इस योनि में जानदारों के मुताबिले में अगर ज्यादा नहीं तो परापर प्रबल जरूर रहते हैं । मन , जो कारकुन यानी चलायमान होने पर सब मानसिक क्रियाओं में शामिल होता है , बनस्पति - योनि में सोया रहता है और ऐसे ही सुरत भी बलिहाज योधनात्मक क्रियाओं के इस योनि में अचेत रहती है । यह बहिर्मुखी धार भी सुरत - धार के रचनात्मक अंग की तरह उसके बोधनात्मक अंग के आश्रित रहती है । क्योंकि इसके पूरे तौर पर खिंच जाने से बहिर्मुखी धार का मी सब काम बंद हो जाता है ।

     ऊपर के लेख से जाहिर है कि सुरत और मन दोनों की धारों के बाहम मिल कर काम करने से मनुष्य - शरीर और उसके छः चक्र तैयार हुए हैं और सुरत मन के पर्दे के द्वारा शरीर के अंदर ताकत , जान और चेतन खवास बहम पहुँचाती है ।



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