Friday, November 6, 2020

कामिल या पहुँचे हुए पुरुषों में दर्ज

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३४ - कामिल या पहुँचे हुए पुरुषों में दर्ज ।


       इस पुस्तक में जहाँ अालमे सगीर और आलमे कबीर की बाहम मुताचिकत का जिक्र आया है वहाँ पर दिखलाया गया है कि इन दोनों में मेल मनुष्य - शरीर के चक्रों और उसके दिमारा के अंदर कायम छिद्रों यानी सूराखों की मारफत होता है । जो पुरुष अपने शरीर ( पिंड ) के छः चक्रों को जगा लेता है वह तीसरे यानी मलिन माया देश का कामिल यानी पहुंचा हुआ पुरुष समझा जाता है । वह अभी मौत के मुक्काम के पार नहीं पहुँचा है लेकिन स्वप्न , सुषुप्ति और सक्ते की मंजिलों को तय कर चुका है और इस वजह से उसको इस तमाम नजराई देने वाली सृष्टि का और उसकी सूक्ष्म अवस्थाओं का भरपूर ज्ञान हासिल है । जो पुरुष ब्रह्म यानी ब्रह्मांडी मन के पहले स्थान पर पहुँचे हैं और जिन्होंने मृत्यु को जीत लिया है वे योगी कहलाते हैं । इसी तरह जो पुरुष ब्रह्म के दूसरे व तीसरे स्थानों यानी त्रिकुटी व सुन्न तक पहुँचे हैं उनमें से पहले योगीश्वर और दूसरे साध या महात्मा कहलाते हैं और जो पुरुष ब्रह्मांड के परे यानी रचना के दूसरे दर्जे के पार निर्मल चेतन - देश में पहुँचे हैं उनको संत कहते हैं और जो संत निर्मल चेतन - देश के सब से ऊँचे पद तक , जो कुल मालिक का निजधाम यानी चेतन - शक्ति का आदि भंडार है , पहुँचे हैं उनको परम संत कहते हैं ।

 ३५ - चेतन स्वरूप का ध्यान ।


       जितने भी तीव्र भाव मनुष्य के मन में पैदा होते हैं उन सब का कारण मन के अंदर का वेग यानी जोश होता है लेकिन जो तेज़ से तेज जोश इंसान के मन में हालतजिंदगी में उठ सकता है उसकी बमुकाविले उस क्षोभ या खलबली के , जो जीव के अंदर देह छोड़ने पर मौत के घाट और उसके परे के स्थानों से गुजरते वक्त होती है , कोई हकीकत नहीं है मगर चकि उस वक्त चाल अंतर में चलती है इस लिये बाहर में उसका इजहार इस कदर प्रबल नहीं होता जैसा कि साधारण जोश की हालतों का हुआ करता है । मौत होने से थोड़ी देर पहले पट्ठ और रगें वगैरह सब की सब धीरे धीरे ऐंठने लगती हैं और मौत वाकै होने पर अंतर में मरोड़ी इस जोर से आती है कि इसका असर बाहर जिस्म पर साफ दिखलाई देता है । योगसाधन करने में भी , अलबत्ता जरा ज़्यादा आहिस्तगी के साथ , ये सब हालतें अभ्यासी पर आती हैं और इनकी वजह से उसके शरीर की बिलकुल कायापलट हो जाती है और उसके रगमंडल और पट्ठों वगैरह की बनावट बदल कर ऐसी हो जाती है कि शरीर से सुरत को धारों के अलहदा होते वक़्त यानी मौत की हालत ग्यापने पर किसी तरह की रुकावट वाकै नहीं होती । रगों और पट्ठों की इन अंदरूनी तबदीलियों के निशान बाहर भी अभ्यासी के शरीर पर थोड़े बहुत नुमायाँ हो जाते हैं लेकिन ज्यादातर उनका असर उसके सूक्ष्म शरीर पर हुआ करता है । बाहरी निशान या चिह्न कामिल पुरुषों के खास कर मस्तक पर और घाँखों में नजराई देते हैं और उनका दर्शन करने पर गहरे भक्तजनों के अंदर सुरत का सिमटाव और मेराज यानी चढ़ाई नुमायाँ तौर से होती है । जिस कामिल पुरुष की रसाई ब्रह्मांड - देश में हो गई है वह इस नज़राई देने वाली सृष्टि की हद्द से पार हो गया है और वह अपनी साधारण क्रियाएँ ब्रह्मांड के घाटों से करता है और उसके चेहरे से गोया ब्रह्मांड की चेतनता झलकती है । इसी तरह संतों और परम संतों की सब क्रियाएं निर्मल चेतन - देश को चेतन - धारों द्वारा हुमा करती हैं ।

       इससे नतीजा निकलता है कि ब्रह्मांड में पहुंचे हुए पुरुष के स्वरूप का ध्यान प्राड - देश के चेतन स्वरूप का ध्यान करना है और संतों के स्वरूप का ध्यान निर्मल चेतन - देश के स्वरूप का ध्यान करना है । इसी वजह से संतमत में संत या परम संत के स्वरूप का और जब वे मौजूद न हो तो किसी साध या महात्मा के स्वरूप का ध्यान करना असल चेतन स्वरूप का ध्यान माना जाता है । जिन लोगों के साथ हमारी प्रीति है उनकी शक्ल खयाल में आने पर जो असर हमारे अंदर पैदा होता है उसका जिक्र दफा ३३ में किया जा चुका है लेकिन पहुँचे हुए पुरुषों की शक्ल ध्यान में आने से जो असर भक्तजनों के अंदर पड़ता है वह बहुत गहरा और तीव्र होता है , क्योंकि यह असर महज़ उनका स्वरूप खयाल या तसब्बुर में आने की वजह से पैदा नहीं होता बल्कि चूंकि पहुँचे हुए पुरुषों को उन सब स्थानों के सूक्ष्म घाटों में रसाई रहती है कि जिनको उन्होंने पार कर लिया है और जिन तक वे पहुँचे हैं इस लिये जब कोई भक्तजन उनके स्वरूप का ध्यान करता है तो उनको फौरन् उसकी इनिला हो जाती है और इतिला मिलने पर वह अपने भक्तजन की मुनासिब सँभाल और इमदाद फरमाते हैं । मालूम होवे कि यह महायता हालत ध्यान में हमेशा नामालूम तौर पर हुआ करती है अलबत्ता तजरुबेकार भक्तजन सुरत की बैठक के मुकाम पर अपनी सुरत का गहरा सिमटाय होता देख कर उसकी परख कर लेता है । अलावा इसके कभी कभी कामिल पुरुप अपने भक्तजनों की प्रतीति दृढ़ करने और उनके अंदर नई उमंग और प्रीति जगाने की गरज से उनको अपने नूरानी स्वरूप की झलक दिखलाने की मौज फरमाया करते हैं । 

     इसमें शक नहीं कि ब्ह्मांड यानी रचना के दूसरे दर्जे तक पहुंचे हुए पुरुप का ध्यान करने से भारी रूहानी फायदा होता है और ध्यान करने वाले के अंदर चेतनता बढ़ती है लेकिन जब तक कि निर्मल चेतन देश यानी रचना के सब से ऊँचे दर्जे में पहुंचे हुए पुरुष के स्वरूप का ध्यान न किया जायेगा अभ्यासी को उस दजें को चेतनता प्राप्त नहीं हो सकती कि यह ब्रह्मांडी मन के लेश से आजाद हो जावे यानी उस वक्त तक अभ्यासी की सुरत के संग ब्रह्मांडी मन के मसाले का लेश बराबर लगा रहेगा । परमार्थी यानी रूहानी तरक्की हासिल करने के लिये शुरू में निर्मल चेतन - देश में पहुँचे हुए पुरुष की और नीज्ञ उन प्रेमीजनों की , जो उसकी जेरनिगरानी साधन कर रहे हैं , संग व सोहचत की गति की भी भारी ज़रूरत है क्योंकि उस महापुरुष का जाती रूहानी असर बड़ा जबरदस्त होता है , जिसका सतसंग के वक्त खास तौर पर इज़हार होता है । सतसंग के वक़्त प्रेमीजन गुरु महाराज को अपने घट में प्रत्यक्ष यानो विराजमान महसूस करने लगते हैं और इस लिये वे उनके संग की भारी कदर करते हैं । आगे चल कर हम दफा ५६ में संतों के संग की ज़रूरत और महिमा का तफसील के साथ बयान करेंगे ।

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