राधास्वामी मत के सिद्धान्त
राधास्वामी मत की शिक्षा सन्तों के धर्म या सन्त मत के अनुरूप है जैसी शिक्षा गुरु नानक , कबीर साहब तथा अन्य सन्तों जैसे - जगजीवन साहब , पलटू साहब , हाथरस के तुलसी साहब और सूफी सन्तों ने अध्यापित की है ।
1. इस मत के मूल सिद्धान्त क , परम पिता कुल मालिक के अस्तित्व में , ख . मनुष्य की आत्मा का उस कुल मालिक का निज अंश होने में , ग . मृत्यु के बाद भी जीवात्मा की निरन्तरता होने में , जीवन्त विश्वास पर आधारित हैं ।
2. इस मत के अनुयायियों का यह विश्वास है कि सच्चा कुल मालिक एक है जो सारी आध्यात्मिकता या चेतनता का भण्डार और स्रोत है । वही सारी रचना का सृष्टा है और मनुष्य की आत्मा या सुरत का उद्गम है । राधास्वामी मत की शिक्षा के अनुसार मानव शरीर में तीन मूल तत्व हैं : स्थूल पदार्थ जिससे भौतिक शरीर बना है ; सूक्ष्म पदार्थ जिस से मनुष्य का मानस या मन बना है ; और तीसरा तत्त्व आत्मा है जो मानव शरीर की जीवात्मा है और शरीर व मन को विकसित कर उनकी अभिवृद्धि करती है । मनुष्य का मन व शरीर दोनों ही नाशमान और मरणशील हैं , आत्मा ही अमर है । इन्हीं के अनुरूप रचना के भी तीन वृहत् प्रभाग हैं । प्रथम सर्वोपरि प्रभाग निर्मल चेतन देश है जहाँ केवल निर्मल चेतनता ही व्याप्त है , उसके नीचे ब्रह्माण्ड है जहाँ आत्मा पर मन का प्रभुत्व है । तीसरा प्रभाग पिण्ड देश है जहाँ स्थूल पदार्थ ही प्रबल है । निर्मल चेतन देश में प्रवेश कर के ही आत्मा इस जन्म मरण के चक्र से मुक्ति पा सकती है ।
3. राधास्वामी मत के अनुसार कुल मालिक ने इस मानव शरीर को कुछ गुप्त और अदृश्य शक्तियाँ भी प्रदान की हैं जिनको जागृत करने से जीवात्मा का वृहत् रचना के विभिन्न लोकों से सम्पर्क हो सकता है । मनुष्य के अपने जीवन का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह इन शक्तियों को विकसित करे । कुल मालिक ने अत्यन्त दया व मेहर से यह भी विधान बनाया है कि संसार में समय - समय पर उच्चतम लोकों से ऐसी पवित्र और जागृत आत्माएँ अवतरित होती रहें जो मनुष्य की गुप्त और अदृश्य शक्तियों का भेद जानती हो । और जिन्हें उन शक्तियों को जागृत करने की युक्ति का ज्ञान हो जिससे जीवों की सहायता कर उनका उद्धार कर सकें । राधास्वामी मत में ऐसी आत्माओं को सन्त सतगुरु कहा गया है । अब ऐसे सन्त सतगुरुओं का अवतार एक निरन्तर अनुक्रम या सिलसिला बन गया है । इस मत के संस्थापक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज थे । उनका जन्म सन् 1818 में आगरा में हुआ था और वहीं से उन्होंने सर्व साधारण को उपदेश देना शुरू किया । तब से अब तक इस परम्परा का निरन्तर अनुक्रम चला आ रहा है । राधास्वामी मत के अनुसार जीव की आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत करने के लिए उसे एक सक्षम और प्रवीण शिक्षक गुरु का शिष्य होना आवश्यक है । राधास्वमी मत में सन्त सतगुरु ही ऐसे शिक्षक हैं ।
4. आध्यात्मिक प्रगति के पथ पर चलने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी सांसारिक कामनाओं को त्याग दें । उसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह अपनी न्यूनतम सांसारिक आवश्यकताओं के लिए अपनी ईमानदारी की कमाई पर निर्भर रहकर एक सरल जीवन व्यतीत करे । खान - पान में भी ऐसे जिज्ञासु को नियंत्रित रहना चाहिए । सभी सामिष भोजन और नशीली वस्तुओं का भी बहिष्कार करना आवश्यक है । परन्तु अनुयायी के लिए संसार का त्याग या एकान्तवास आवश्यक नहीं है । गृहस्थ जीवन में रहकर भी मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है । उत्तम सांसारिकता या बेहतर दुनियादारी न कि असांसारिकता (
unworldliness ) उसके जीवन का आदर्श है ।
5. इस मत में उपासना और निर्दिष्ट आध्यात्मिक साधन जिज्ञासु को उपरोक्त प्रतिबन्धों को स्वीकार करने पर बता दिये जाते हैं । जिज्ञासु को सन्त सतगुरु द्वारा या उनके अधिकृत व्यक्ति द्वारा उपदेश दिया जाता है जिसकी व्यवस्था सन्त सतगुरु स्वयं करते हैं । जिज्ञासु को सर्वोच्च सृष्टा का निज आध्यात्मिक नाम राधास्वामी नाम मानना होता है । सामान्यतः व्यक्ति को अपनी शिक्षा समाप्त करने पर ही उपदेश दिया जाता है
प्रारम्भ में उपासना के दो साधन बताए जाते हैं जिससे वह अपनी हैं सांसारिक इच्छाओं व इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण प्राप्त कर सके । जब ऐसे साधन से अपेक्षित प्रगति हो जाती है तो उसे उपासना की तृतीय विधि बताई जाती है जिससे वह विभिन्न चैतन्य धामों की ओर प्रगति कर सके जिसे सन्तों की भाषा में सुरत - शब्द - अभ्यास कहा गया है । सूफी सन्त इस विधि को सुलतान - उल - अज़कार कहते हैं।
राधास्वामी सतसंग का मुख्यालय दयालबाग, आगरा है ।
radhasoami
ReplyDelete