Friday, October 16, 2020

सुख और दुःख का बयान ।

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सुख और दुःख का बयान


 जब यह तय हो गया कि परमार्थ का असली उद्देश्य परम आनंद की प्राप्ति और सर्व प्रकार के दुःख से कतई निवृत्ति हासिल करना है तो यह जरूरी हो जाता है कि सुख और दुःख की अवस्थाओं की विस्तारपूर्वक जाँच की जावे क्योंकि बगैर इसके दुःख और सुख की असलियत यानी असल हकीकत हमारी समझ में नहीं सकती और हो वे साधन तजवीज़ हो सकते हैं जिनपर अमल करने से हमारे लिये परमार्थ के उद्देश्य की प्राप्ति मुमकिन है

5- दुःख का बयान :-

     दुःख दो तरह के होते हैं : -शारीरिक और मानसिक । शारीरिक दुःख की हकीकत की जाँच करने के लिए हम शारीरिक दुःख के एक तजरुचे को लेते हैं । फर्ज करो कि किसी आदमी के जाग्रत् अवस्था में छुरी का जखम आ जाता है या किसी और तरह से जिस्म में चोट लग जाती है । जखम या चोट के लगने पर जिस्म का वह हिस्सा या तो कट कर अलहदा हो जाता है या कुचल जाता है और उसके अंदर की रगें भी , जिन पर से होकर ज्ञानेंद्रिय की धारें जिस्म में आती जाती हैं , कट जाती हैं या जखमी हो जाती हैं । गौर करने से मालूम होगा कि रगों के कट जाने या चोट खाने से जिस्म के अंदर फैली हुई ज्ञानेंद्रिय की धार के कुछ हिस्से का जिस्म के कटे या कुचले हुए अंग से जबरन् यानी जबरदस्ती इसराज हो जाता है और जब जखमी अंग के पास या नजदीक वाली ज्ञानेंद्रिय की धारें इस जबरन इखराज या हटाव की दशा को ज्ञाता तक पहुँचाती हैं तो उसको शारीरिक दुःख का अनुभव होता है । अगर हिप्नॉटिज्म के अमल द्वारा या क्लोरोफार्म सुंघाकर ज्ञानेंद्रिय की धार की क्रिया बंद कर दी जावे तो शरीर की सुधि बिसर जाने से यानी शरीर के घाट से तवज्जुह के सम्पूर्ण अंग में हट जाने पर जीव को कोई इतिला जखम लगने की न पहुँच सकेगी और न उसको दुःख का कोई ज्ञान हासिल होगा ।

     मानसिक दुःख का ज्ञान भी जीव को इसी तौर पर ज्ञानेंद्रिय की धार ही की मारफत होता है । अलबत्ता इस सूरत में रगों के बजाय मन के बंधनों को झटका लगता है । लेकिन इन बंधनों को झटका लगने पर मानसिक दुःख का अनुभव शारीरिक दुःख के ज्ञान की तरह ज्ञानेंद्रिय को धार ही के जरिए से होता है ।

     जाग्रत् अवस्था की निसबत यह बयान किया गया कि ज्ञानेंद्रिय की धार तवज्जुह रूप में प्रकट हो कर ज्ञान हासिल करती है , लेकिन मालूम हो कि स्वप्न अवस्था में भी जो जल्द जल्द बदलते हुए नजारे दिखलाई देते हैं और एक ही सेकंड में पीसों बातें व चीजें तजरुये में मा जाती हैं , यह सब तवज्जुह ही का खेल है क्योंकि उस वक्त तवज्जुह का रुख दिमाग के अंदर पड़े हुए मुख्तलिफ नशों की जानिय होने हो के कारण स्वप्न की चीजें और बातें तजरुये में आती हैं । और कभी कभी बाहरी शोर या आवाज वगैरह की वजह से तवज्जुह का रुख अचानक पलट जाने से नई तरह के और बाज औकात निहायत अजीब व गरीब या डरावने स्वप्न दिखलाई देने लगते हैं ।

     गरजेकि अगर जाग्रत् और स्वप्न की सब हालतों की मुनासिब जाँच की जायेगी तो बिला शुबह साबित हो जायगा फि तवज्जुह की मदद के बगैर मन के अंदर किसी किस्म का ज्ञान पैदा नहीं हो सकता । यह जरूर है कि शारीरिक दुःख के व्यापने में ज्ञानेंद्रिय की धारों की वाहक ( ले जाने वाली ) रगें होती हैं और मानसिक दुःख के व्यापने में , जो मन के बंधनों को झटका लगने से हुआ करता है , उन धारों के बाहक हमारे खयालान होते हैं । [ इंद्रियों के द्वारा संसार के पदार्थों का जो कुछ ज्ञान हमको प्राप्त होता है वह सब संस्कार या नाश की शक्ल में हमारे दिमाग के अंदर दाखिल होता है और इन संस्कारों या नशों के संबंध में जो रूप ( कल्पना स्वरूपी ) अंतर में हमारी चित्तवृत्ति या तबज्जुह धारण करती है उन्हीं को सयाल कहते हैं । ] यह कहना गलत न होगा कि शारीरिक दुःख के व्यापने में तार के जरिये खबर पहुंचने की सी क्रिया होती है और मानसिक दुःख के व्यापने में घेतार के तार पहुँचने की सी क्रिया होती है । जब हमारे मन को किसी किस्म का सदमा पहुँचता है या चोट लगती है तो उस वक़्त अवश्य ही यह अनुभव होता है कि कोई न कोई बात , जिसमें हमारा बहुत बंधन था , पूरी होने नहीं पाई है या कोई ऐसी वस्तु कि जिसके साथ हमारा किसी न किसी प्रकार से तअल्लुक था हमसे जुदा हो गई है या उस वस्तु की किसी प्रकार से हानि हो गई है । बहरहाल इन सब अवस्थाओं में या तो हमारे मन के बंधन के जबरदस्ती कटने की सूरत पैदा होती है या उसको चोट लगने की कैफियत ज़ाहिर होती है और जब तवज्जुह की धार इनमें से किसी एक बजह से अपनी मामूली गुजरगाह से जबरदस्ती हटाये जाने पर इस जबरदस्ती हटाव को कैफियत को मानसिक घाट पर दोहराती है तो हमको मानसिक दुःख का अनुभव होता है ।

     शारीरिक और मानसिक दुःख के संबंध में यह मानने पर कि दोनों के अंदर मुरूप बात तवज्जुह का जबरदस्ती हटाव है , दुःख की परिभाषा ( तारीफ ) यह कायम होती  है :-

     शरीर या मन के घाट से अपनी जानेंद्रिय की धारों के जबरन् इखराज या जबरदस्ती हटाव का जो अनुभव जीव को होता है वही दुःख है ।

6- सुख का बयान :-

     चूंकि जाहिरा तौर पर सुख की अवस्था दुःख की अवस्था की खिलाफ यानी उलटी सूरत मालूम होती है इस लिए यह खयात करना ग़लत न होगा कि अगर दुःख के व्यापने में ज्ञानेंद्रिय की धार का जबरदस्ती हटाव होता है तो मुख के व्यापने में हटाव के बजाय उसकी एकत्रता होनी चाहिए । पुनाये सुख की अवस्था के दो एक तजरुषों की परीक्षा करके देखते हैं कि यह खयाल कहाँ तक दुरुस्त है ।

    फर्ज करो कि कहीं पर निहायत सुरीला गाना बजाना हो रहा है और सब के सब सुनने वालों की तवज्जुह उस में लीन हो रही है , यहाँ तक कि मस्ती और मदहोशी का आलम हो रहा है । अगर ऐसे मौके पर उनमें से एक शख्स के पास किसी मित्र या नजदीकी रिश्तेदार के अचानक सत बीमार पड़ने की खबर पहुँचे या ऐसी कोई और वारदात हो जाये कि जिससे उसकी तवज्जुह का रुख एकदम पलट जावे तो उस शख़्स के दिल से गाने बजाने का सारा मज़ा एकदम गायब हो जावेगा । इतना ही नहीं , बल्कि अगर वह शाम खबर पा कर फौरन् उसके मुतअल्लिक मुनासिब कारवाई न करने पावेगा तो उसके लिए वह गाना , बजाना , जो थोड़ी देर पहले परम मुखदायक था , पोर दुखदायक हो जावेगा । इस किस्म के और भी बहुत से दृष्टान्त दिये जा सकते हैं जिनसे साफ मालूम होगा कि मुख की अवस्था में हमेशा तवज्जुह की धार के एकत्र होने ही के कारण सुख का अनुभव हुआ करता है । चुनाँचे एक और मिसाल लीजियेः देखने में आता है कि बच्चों का मन सीधा सादा व नातजरुबेकार होने की वजह से सयानों की तरह संसार के पदार्थों में ज्यादा अटक नहीं मानता है और न ही उसको दुनियवी भलाई बुराई की ज्यादा तमीज होती है । इस लिए मामूली से मामूली चीजों में भी बच्चों को तवज्जुह लग जाती है , और लकड़ी व पत्थर के बेकार टुकड़े पाकर वे मस्त व मगन हो जाते हैं । इससे जाहिर है कि बच्चों की भोली बाली मगनता और खुशी का कारण सिर्फ तवज्जुह की यकाई यानी एकत्रता ही है । अलावा इसके खयाल करो कि बहुत से दिलबहलाब के ऐसे खेल हैं जैसे चौपड़ , ताश , गंजका वगैरह - कि जिनमें अजखुद कोई लुभाने वाली बात नहीं है लेकिन उनके खेलने में जो तवज्जुह की यकमई के तजरुके होते हैं उनकी वजह से लोगों को इन खेलों में बड़ा रस आता है । इससे भी यही निश्चित होता है कि मुख सिर्फ तवज्जुह की यकाई का नतीजा है । तवज्जुह के यकसू होने पर मामूली सुख व हर्ष की प्राप्ति के अलावा बाज़ औकात मनुष्य की बुद्धि में सहज - ज्ञान ( Intuition ) के प्रकाश की मदद से चमत्कार भी हुआ करता है और उस अवस्था में बहुत सी गुप्त बातें बुद्धि के अंदर प्रकाशित हो जाती हैं । सुख की अवस्थाओं के इन सब तजरुषों से , जो ऊपर बयान हुए , मालूम होता है कि तबज्जुह की यकसूई यानी एकत्रता ही के कारण शारीरिक और मानसिक सुख का अनुभव होता है । लेकिन इससे और नोज दफा ५ में जो दुःख की अवस्था का निर्णय हुआ उससे उस भंडार या केंद्र के जौहर व गुणों की निसपत कुछ पता नहीं चलता कि जिस के अंदर से ज्ञानेंद्रिय की सब धारें निकलती हैं । आगे चल कर हम इस मजमून पर मुफस्सिल बहस करेंगे । यहाँ पर सिर्फ इस कदर बयान कर देने से काम चल जायेगा कि चेतन - शक्ति यानी जीवात्मा का जौहर सत् , चित् और आनंद रूप है और ज्ञानेंद्रिय को धारें उस शक्ति की किरणें हैं और चेतन - शक्ति की धार ही का स्थूल प्रकृति यानी माद्दा और मन के साथ संयोग होने से संसार के अंदर दुःख मुख का जहूर होता है ।

     जैसे पिछली दफा में हमने दुःख की परिभाषा मुख़्तसर लफ़्ज़ों में कायम की थी वैसे ही अब मुख की भी परिभाषा लिखते हैं :-

     शरीर या मन के घाट पर अपनी ज्ञानेंद्रिय की धारों के सिमटाव यानी एकत्रता का जो अनुभव जीव को होता है वही संसार का मुख है ।


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