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६ - मन और सुरत दो अलग अलग वस्तुएँ हैं ।
मालूम होवे कि शरीर के अंदर विचार या चितवन करने के औजार को मन कहते हैं । यह मन अपनी क्रिया करने के लिए सुरत की धार का वैसा ही अधीन है जैसे कि इंद्रियाँ । क्योंकि सुरत की धारों के सिमट जाने पर , जैसा कि सुषुप्ति या मूर्छा अवस्था में होता है , मन भी इंद्रियों की मानिंद बेकार हो जाता है । इससे साफ मालूम होता है कि मन और सुरत दो अलहदा अलहदा वस्तुएँ हैं और सुरत प्राण - शक्ति या जान के जौहर का एक केंद्र है कि जहाँ से धारे निकल कर शरीर और मन को जान देती हैं ।
१० - प्रेत - योनि ।
प्रेत - विद्या के मुतअल्लिक तहकीकात करने वालों ने बहुत से ऐसे और मामूली तजरुवात लिखे हैं जिनसे मालूम होता है कि देह छोड़ने पर सुरत यानी जीवारमा का प्रभाव या नाश नहीं हो जाता बल्कि सुरत दूसरी अवस्थाओं में , जिनका जिक्र भागे मायेगा , प्रवेश कर जाती है । अगर वाकई ये अवस्थाएँ कोई वजूद रखती हैं तो चेतन शक्ति के जौहर और नियमों को जाँच व दरियाफ्त के सिलसिले में ये निहायत कारामद साबित होगी । इस लिए हम सलाह देंगे कि प्रेत - विद्या के जानकारों ने जो गैरमामूली पाकात कलमबंद किये हैं उनकी इस तौर पर आजमापश की जाये कि या तो हमेशा के लिए प्रेत - योनि को सच हो मान लिया जावे या हमेशा के लिये उसका निषेध ही कर दिया जाये । इस योनि की निसयत जो कुछ कहा जाता है अगर वह सच साचित हो जाये तो उससे बहुत कुछ रोशनी चेतन शक्ति के जौहर और नियमों पर पड़ेगी , और नीज मारी सहायता उसके भेद समझने में मिलेगी । अगर इस वक़्त मान लिया जाये कि पढ़के काबिल तजरुबेकारों ने प्रेत - विधा की निसवत जो कुछ तहकीकात की है वह सच है तो उससे चंद मुफीदमतलब नतीजे बरामद होते हैं , मसलन् यह कि स्थूल शरीर छोड़ने पर सुरत सब से अब्बल एक सूक्ष्म शरीर धारण करती है जिसको नूरानी जिस्म कहते हैं , और यह कि उस सूक्ष्म शरीर में रहते हुए जीव के अंदर स्थूल देह वाले राग देष कम व वेश बदस्तूर बने रहते हैं , बल्कि सूक्ष्म शरीर का रूप और रंग मी स्थूल शरीर के रूप व रंग से मिलता जुलता होता है । इन नतीजों से जाहिर होता है कि स्थूल शरीर से छुटकारा पाने पर जीव की उस मानसिक प्रपंच से रिहाई नहीं हो जाती जिसकी वजह से उसको दुःख व क्लेश भोगना पड़ता है , यानी स्थूल शरीर के छूटने पर वे सब कारण बदस्तूर बने रहते हैं जिनकी वजह से मन के बंधन पैदा हुआ करते हैं और बाद में स्थूल देह देर अबेर धारण करनी पड़ती है । आगे चल कर हम तशरीह के साथ बयान करेंगे कि इन बंधनों यानी राग , द्वेष , लोभ , मोह वगैरह और संसारी वासनाओं ही की वजह से सुरत को इस स्थूल मंडल में उतर कर स्थूल देह धारण करनी पड़ती है । इस लिए जब तक इन कारणों का बिलकुल सफाया न किया जायेगा और इनके बजाय ऊँचे तबके (मंडल) के चेतन यानी रूहानी केंद्रों या भंडारों से संबंध कायम न होगा , जीव के संग मन और स्थूल मसाले का झगड़ा बराबर लगा रहेगा और इसकी वजह से सांसारिक दुःख सुख का भोग अभोग बराबर करना पड़ेगा । इस दफा में जो चपान हुआ उससे दो बड़े नतीजे बरामद होते हैं : -एक तो यह कि स्थूल देह छूट जाने पर भी प्रेत - योनि में जीव को बदस्तूर स्थूल देहधारियों की तरह दुःख सुख भोगने पड़ते हैं और दूसरा यह कि जिस्म की मौत होने पर जीव का नाश नहीं हो जाता ।
Radhasoami
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