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५९ - चेतन नाम का उच्चारण या सुमिरन ।
अब रूहानी ताकत यानी चेतनता जगाने की तीसरी पुक्ति का वयान शुरू करते हैं । यह तीसरी युक्ति चेतन नाम का सुमिरन है जिसका अर्थ सादे लफ्जों में पवित्र नाम का अंतर में उच्चारण है । माम लोगों का खयाल है कि मन ही मन में विनती प्रार्थना पेश करना और अंतर में पवित्र नाम का सुमिरन करना एक ही बात है लेकिन , जैसा कि नीचे की तशरीह से मालूम होगा , यह सपाल गलत है । जिस किस्म के पवित्र नाम का हम जिक्र कर रहे हैं उस किस्म के नामों का सुमिरन इस लिये नहीं किया जाता कि उनके शब्दार्थ की मारफत अपनी मनोवासना सिद्ध की जावे बल्कि यह सपाल किया जाता है कि उनमें से किसी नाम का खास तरीके से फकत उच्चारण ही करने से दिली मुराद पूरी हो जाती है । इस किस्म के पवित्र नामों को पारिभाषिक बोली में ' मंत्र ' कहते हैं । इनमें बात ऐसे नाम होते हैं कि जिनका अंतर में सुमिरन करने से , जप के पूरा होने पर , ईसान के अंदर इस तरह की ताकत पैदा हो जाती है कि वह अपने से तअल्लुक में आने वाले सब लोगों के खयालात और ल्वाहिशात को यस में कर लेता है । इन नामों को ' वशीकरण मंत्र ' कहते हैं । इनके अलावा पाज़ ऐसे नाम होते हैं कि जिनके अंदर संहार यानी नाश की शक्ति मौजूद है और लोग कहते हैं कि उनकी सिद्धि हासिल हो जाने पर इंसान निहायत आसानी के साथ किसी भी चीज को नाश या मगलूब कर सकता है ।
६० - पवित्र नामों के अंदर शक्ति की हकीकत ।
पवित्र नामों के अंदर जिस तरह की शक्ति रहती है अब उसका बयान करते हैं । इस पुस्तक के पहले भाग में हमने यह दिखलाने की कोशिश की थी कि मनुष्य शरीर का अंदरूनी इंतजाम कोई इत्तफाक्रिया मुमामला नहीं है बल्कि यह रचना के इंतजाम की बुनियाद पर कायम है और इस सिलसिले में बयान किया था कि पालमेसगीर के मुख्य भाग और उपभाग आलमेकबीर के मुख्य भाग और उपभागों के मुताबिक हैं और मनुष्य शरीर के चक्रों के अंदर जो छिद्र हैं उनके द्वारा इनका बाहम मेल होता है पानी दूसरे लफ़्जों में मनुष्य शरीर के चक्र मालमेकबीर के स्थानों का एक छोटा नमूना है । इस बयान से नतीजा निकलता है कि बाहर रचना में जिन शक्तियों की धारें काम कर रही हैं वे मनुष्य शरीर के अंदर भी छोटे पैमाने पर मौजूद हैं । अलावा इसके हम पीछे यह भी मुझस्सल तौर पर जाहिर कर चुके हैं कि इन सब धारों से जिन को शक्ति की कारकुन अंशें ( kinetic force - emanations ) कहना चाहिए , धर्राहट पैदा होकर शब्दों की गुंजार हो रही है जो हर जगह और हर सिम्त में सुनी जा सकती है बशर्ते कि चेतन श्रवण - शक्ति को , जो अब गुप्त है , जगा लिया जावे । सब भावाजों के अंदर एक स्वर रहता है जिसका दार व मदार थर्राहट के कम्पों पर रहता है और यह कायदा है कि एक आवाज दूसरी आवाज से , जिमका म्बर उसके स्वर से मिलता है , फौरन् मिल जाती है और स्वर एक न होने को हालत में उससे टकराया करती है । इस कायदे की रू से , जिसको स्वर सम्मेलन का नियम ( law of harmony ) कहते हैं , मजकूरावाला शब्द भी दूसरे स्वर मिलने वाले शब्दों के साथ मिल जाते हैं और अलहदा स्वर रखने वाले शब्दों से टकराया करते हैं । हर एक मंडल या स्थान एक एक मरकली ( केंद्रीय ) शक्ति के आसरे कायम है जिसको उस स्थान का धनी कहते हैं । वह धनी उस स्थान को शक्ति पा जान का भंडार पानी केंद्र होता है और उससे उत्पन्न हो कर शक्ति की धारे स्थान के अंदर फैलती हैं जिनके संग खास तरह की गुंजार पानी आवाजें भी शामिल रहती हैं । हमारे शरीर के मुख्तलिफ चक्रों के अंदर मी बाहर के स्थानों के मुताविक मुन्तलिफ धारें मौजूद हैं मगर ये धारें चक्रों में उस तरह कारकुन नहीं हैं जैसे कि धनियों की धारें अपने स्थानों में कारकुन हैं । जहाँ तक स्थूल शरीर की संभाल का वास्ता है वहाँ तक तो ये धारें धनियों की धारों के मुवाफिक चंद क्रियाएँ करती हैं लेकिन उनके चेतन खवास , जैसे ज्ञान लेना , समझना यूझना और बंदोबस्त करना वगैरह , आम तौर पर गुप्त या अचेत हालत में हैं । अब खपाल करो कि अगर किसी चक्र पर कोई ऐसा शब्द या नाम उच्चारण किया जाये जो मनुष्य की बोली में उस चक्र से मुताबिकत रखने वाले बाहरी स्थान के केंद्र या धनी से प्रकट होने वाले शब्द की नकल हो तो इस अमल से जो थर्राहट चक्र के अंदर पैदा होगी वह कुछ अरसे बाद अभ्यास दुरुस्ती से बन पड़ने पर बाहरी स्थान के शब्द के अंदर मौजूद थर्राहट के समान होने लगेगी और समानता भरपूर होने पर दोनों शब्दों का स्वर मिलकर उनमें एकता हो जायेगी और स्वर मिल जाने से जैसे किसी बाजे के बजने पर व्यूनिंग फोर्क ( tuning fork ) का पाला , जिसका स्वर बाजे से मिला है , आप से आप बोला करता है यानी ' पास ' दिया करता है वैसे हो एक थर्राहट के पैदा होने पर दूसरी फौरन् आप से आप जारी हो जावेगी । जब यह सूरत हो गई तो घनी के चेतन खवास और अंतरी शक्तियाँ अभ्यासी के अंदर आप से आप जग जाती हैं और उसके लिये मुमकिन हो जाता है कि इच्छानुसार पवित्र नाम का अपने अंतर में उच्चारण करके घनी की उस जबरदस्त शक्ति को , जो उसके घाम के अंदर उसकी मातहती में काम कर रही है , हरकत में ले आवे । इसी अमल को पारिभाषिक बोली में मंत्र - सिद्धि या पवित्र नाम के अंदर की शक्ति का सिद्ध कर लेना कहते हैं । अंतर में नाम का उच्चारण अरसे दराज तक कम व पेश बेअसर और महज ऊपरी रहता है क्योंकि हमारी सब इत्तियाँ बहिर्मुख होने के कारण नाम के उच्चारण से असल स्वर वाला तार छिड़ने नहीं पाता । ये बहिर्मुख वृत्तियाँ अभ्यास के वक्त तरह तरह की गुनावनें और शक्लें पैदा करती रहती हैं जिनसे तवज्जुह का विखार हो कर अभ्यास में भारी विघ्न या होता है और नाम का उच्चारण यानी सुमिरन जैसा कि चाहिए फलदायक नहीं होने पाता और अभ्यासी के अंदर साधन के वक्त भारी संग्राम की कैफियत पैदा हो जाती है । जब तक ये वृनियाँ कम व वेश पराजित नहीं हो जाती उस वक्त तक किसी चक्र के अंदर घारों का जगाना यानी चेतन करना नामुमकिन रहता है । चूंकि हमारी पहिर्मुख या माषिक वृत्तियाँ जन्म से लेकर चौबीसों घंटे पार पार मुहाविरा किये जाने से जम कर पुष्ट हो गई है इस लिये चंद दिन , चंद महीने या चंद साल थोड़ा सा साधन करने से इनका पराजित हो जाना मुमकिन नहीं है । अलावा इसके बहुधा साधन करने वाले लोगों को पवित्र नामों के अंतरी सुमिरन करने की ठीक ठीक पुक्ति भी मालूम होती और अगर बेचारे किसी तरह ठीक विधि से साधन कर भी पाते हैं तो उनको सलाह घ मदद देने वाला कोई नहीं मिलता । इसी वजह से ग्राम लोगों में यह खयाल फैल गया है कि अब पवित्र नामों के अंदर पहले की सी शक्ति नहीं रही है , लेकिन यह खपाल दुरुस्त नहीं है । नामों के अंदर पहले की सी शक्ति अब भी बदस्तूर मौजूद है अलपचा पहले की तरह युक्ति के सिखलाने वाले और सलाह व सहायता देने वाले पुरुप आसानी से नहीं मिलते । बहरहाल हमारे इस पपान से यह नियम स्थापित होता है कि अगर मनुष्य शरीर के अंदर किसी या पर किसी ऐसे नाम का ( उसके शब्दार्थ का लिहाज न करते हुए ) अंतरी सुमिरन पानी उच्चारण किया जाये जो किसी धाम के धनी से जारी शक्ति की धारों के संग पैदा होने वाली ध्वनि की इंसानी पोली में नकल हो तो स्वर सम्मेलन के नियमानुसार उस धनी की शक्तियाँ अभ्यासी के अंदर पैदा हो सकती हैं । बाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने नीचे लिखे हुए शेर में इसी उसूल का जिक्र किया है :-
" मियाने इस्म व मुसम्मा चो फर्क नेस्त बवीं
तु दर तजल्लिये इस्मा जमाले नामे खुदा । "
यानी नाम और नामी के दरमियान कोई फर्क नहीं होता है । मालिक के नाम का प्रकाश मालिक के जमाल को साफ तौर पर दिखलाता है ।
रामायण के प्रसिद्ध रचयिता तुलसीदास जी ने भी नीचे के पद में इसी किस्म के खयाल का इजहार किया है :-
" गिरा अर्थ जल पीचि सम कहियत मित्र न मिम । "
गिरा यानी शब्द और उसका अर्थ , जल और उसको तरंग के समान हैं । कहने मात्र के लिए भिन्न हैं लेकिन असल में भिन्न नहीं हैं ।
जिन नामों की निसबत ऊपर जिक्र हुमा ये सब ध्वन्यात्मक नाम हैं यानी मुख्तलिफ स्थानों के शब्दों की ईसानी बोली में नकल है इस लिये उनको मामूली शब्दों या नामों के साथ , जो दुनिया की चीजों या मन के भायों व खयालों के जाहिर करने के लिये इस्तेमाल किये जाते हैं , सस्त मस्त नहीं करना चाहिए ।
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