Saturday, November 28, 2020

६४ - भंडार और धार के शब्दों में भेद

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६४ - भंडार और धार के शब्दों में भेद । 




      मालूम हो कि चेतन धारों के जहूर से पहले जो हिलोर पा मौज चेतन भंडार में उठी और वे चेतन धारें ( जो हिलोर के बाद उस भंडार से प्रकट हुई ) दोनों दरअसल दो मुख़्तलिफ कारकुन यानी चलायमान शक्लों में आदि शक्ति का इजहार थीं और पमुजिब दफा ६० के बयान के यह मानना होगा कि इन दोनों के संग शब्द भी प्रकट हुमा होगा और जाहिर है कि हिलोर वाला शब्द धारों वाले शब्द से मुख्तलिफ होगा । इस लिये नतीजा निकलता है कि रचना के शुरू में आदि शक्ति का दो कारकुन शक्लों में इजहार होने से दो मुन्तलिफ शब्द प्रकट हुए , एक भंडार संबंधी शुन्द और दूसरा धार संबंधी । भंडार और धार के शब्दों का यह भेद उन शब्दों के अंदर भी मौजूद है जो मुख़्तलिफ घनिषों की अंतर्गत यानी चेतन क्रिया प्रकट हो रहे हैं लेकिन इसकी जानिब किसी की तवज्जुह मुखातिब नहीं हुई और जो धुने धनिपों से उनकी पहिर्मुख क्रियाओं के सिलसिले में प्रकट हो रही हैं उन्हीं की तरफ ध्यान दिया गया और उन्हीं को मंत्र रूप में जाहिर किया गया । चुनांचे वेदों में जो सबसे पवित्र नाम या मंत्र ॐ प्रकट किया गया है वह अपने अंतर्गत चेतन शक्ति से प्रकट होने वाले धार व मंडार के शब्दों को अदा नहीं करता बल्कि सिर्फ उस धुन की इंसानी बोली में नकल है जो ब्रह्म यानी ब्रह्मांडी मन से ब्रह्मांड के अंदर उसकी बहिर्मुख क्रियाओं के सिलसिले में प्रकट हो रही है । सच्चे कुल मालिक यानी चेतन शक्ति के सोतपोत और भंडार को छोड़कर दूसरे धनिपों से पहिर्मुख क्रियाओं के सिलसिले में जो घुनें प्रकट होती हैं उनमें और शब्द में , जो धनियों की सुरत के अंदर हिलोर उठने और बाद में उससे धार निकलने पर प्रकट होता है , जो बाहमी फर्क है वह नीचे की मिसाल से समझ में आ सकता है । यह जिक्र हो चुका है कि हमारा संकल्प विकल्प उठाने वाला आपा पानी मन एक ऐसा मौजार है जो अपनी क्रियाओं के लिये शरीर के अंदर मौजूद सुरत के केंद्र से प्राप्त होने वाली चेतनता के आश्रित है और जब सुरत की चेतनता मन के घाट पर पहुँच जाती है तभी मन की क्रियाओं ( मनन , चितवन , बोध और अहंकार ) का इज़हार होता है और सब कोई जानता है कि मन की इन क्रियाओं के खवास सुरत के केंद्र और उसकी धारों के खवास से ( जिनके द्वारा मन को जान यानी चेतनता मिलती है ) बिलकुल मुस्तलिफ होते हैं । अब खयाल करना चाहिये कि मानसिक क्रियाओं के सिलसिले में जो कम्प और शब्द हमारे मन के घाट पर पैदा होते हैं वे हमारी सुरत यानी चेतन शक्ति के मन के घाट से गुजरने का नतीजा होते हैं लेकिन ये शब्द उन चेतन शब्दों से , जो मुरत की धार से पैदा होते हैं , वैसे ही मुस्तलिफ रहते हैं जैसे नीली रोशनी , जो किसी नीले शीशे मे सफेद रोशनी के गुजरने पर पैदा होती है , सफेद रोशनी मे मुख़्तलिफ होती है ।


        अगर कोई ऐसा शरस हो कि जिसके अंदर शीशे के बीच से निगाह डालने और दोनों रोशनियों को एक दम देखने की शक्ति मौजूद है तो उसको उन रोशनियों में मारी फर्क साफ तौर पर नजराई पड़ेगा । चुनाँचे मन के द्वारा प्रकट होने वाले और सुरत की धारों से जाहिर होने वाले शब्दों के अंदर मी इसी किस्म का भारी फर्क रहता है लेकिन यह फर्क ऐसे लोगों को नजर नहीं आ सकता है जिनकी निगाह सुरत की बैठक तक नहीं पहुंचती है । धनियों से बहिर्मस क्रियाओं के सिलसिले में जो मुन्तलिफ शब्द जाहिर हो रहे हैं और जिनको उनका ध्वन्यात्मक नाम कहते हैं वे भी ऊपर के लेख के बमुजिब धनियों को जान यानी चेतनता देने वाली चेतन धारों से प्रकट शब्दों से अलहदा होते हैं । चेतन शक्ति के आदि सोत और भंडार यानी सच्चे कुल मालिक में अलपचा इस किस्म का फर्क मौजूद नहीं है क्योंकि उस आदि भंडार की पहिर्मुख क्रिया सिर्फ चेतन यानी जान की धार का प्रकट करना है । चुनाये सच्चे इस मालिक यानी राधास्वामी दयाल के अवतार के सिवाय और अवतारों य पैराम्बरों परौरह ने सिर्फ अपने धनियों के ध्वन्यात्मक नाम या मंत्रों ही का भेद प्रकट किया क्योंकि सच्चा और चेतन निज नाम पा मंत्र सिर्फ वही पुरुष प्रकट कर सकता है जिसकी पहुंच चेतन शक्ति के सोतपोत और भंडार तक हो ।



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