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49 - प्रचलित मतों के अवतार व पैग़म्बर ।
      आगे चल कर दिखलाया गया है कि वे सब अवतार व पैग़म्बर , जिनका पीछे जिक्र हुआ, रचना के दूसरे बड़े दर्जे यानी ब्रह्मांडो मन या ब्रह्म के देश से आये थे और यह बयान हो चुका है कि उस ब्रह्म और उसके देश को जान व ताकत सच्चे कुल मालिक यानी चेतन शक्ति के निज सोतपोत और भंडार से प्राप्त होती है और मृत्यु के समय जो दशा रद्द व बदल की मनुष्य के मन को व्यापती है उसी प्रकार की ब्रह्म और उसके देश को भी व्यापती है इस लिये जाहिर है कि ब्रह्म के देश में पहुँचने पर अगचे अर्सा दराज के लिये जीव को भारी रूहानी फायदा हासिल होता है लेकिन परम और अविनाशी आनंद प्राप्त नहीं होता और न ही उसका हर तरह के रद्द व बदल व मृत्यु से हमेशा के लिये छुटकारा होता है और चूंकि मनुष्य के मन की तरह ब्रह्मांडी मन की रुजूआत यानी वृत्ति अपने देश में बहिर्मुखी हैं इस लिये अंतर्मुखी चेतन धारों की मदद से जब सुरत ब्रह्मांड के परे यानी निर्मल चेतन धाम की तरफ चढ़ती है तो ब्रह्मांडी मन की वृत्तियाँ स्वाभाविक तौर पर विरोध करती हैं । अलावा इसके जैसे मनुष्य का मन चौबीस घंटे अपने ही सुख के कामों में लगा रहता है इसी तरह ब्रह्मांडी मन भी अपनी हो जात के मुतअल्लिक इंतजाम में मसरूफ रहता है और जैसे मनुष्य के मन को निर्मल चेतन देश का कोई सयाल नहीं आता वैसे ही उसकी भी तवज्जुह उस तरफ कतई नहीं जाती । जब ब्रह्मांडी मन का यह हाल है तो उसके हुक्म से प्रकट होने वाले अवतारों और पैग़म्परों का भी ऐसा ही हाल होना चाहिए । चुनाचे उन महापुरुषों ने सिर्फ ब्रह्मांडी मन के देश तक की रसाई के लिये इंतजाम फरमाया और यह भी ऐसे तरीके से कि सिर्फ ये जीव , जो खुद उनके चरणों में लगे या जो उनके गुरुमुख शिष्यों को शरण में आये , उनके उपदेश से अमली फायदा उठा सके और जो लोग उनके पाद उनके मत के अनुयायी बने , उनको जिंदगीभर में जो असली रूहानी तरक्की प्राप्त हुई वह नहीं के बराबर थी । मरने के बाद वे सब लोग अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ऊँचे या नीचे देशों में दाखिल हुए लेकिन ब्रह्मांडी मन के देश यानी ब्रह्मांड में उनको वास नहीं मिला क्योंकि मन की धारों का पहिर्मुखी मुकाव पूरे तौर पर नाश हुए बगैर कोई जीव ब्रह्मांड में कदम रखने का अधिकारी नहीं होता । ऐस हो प्रमोडी मन की बहिर्मुखी वृनियों की पूरे तौर पर सफाई हुए बगैर कोई सुरत निर्मल चेतन देश में प्रवेश करने के काबिल नहीं होती । वृत्तियों को इस सफाई की मिसाल प्रकृति यानी माहे के अंदर होने वाली उन तबदीलियों से दो जा सकती है जो उसके ठोस अपन अवस्था में बदलने पर पाकै होती हैं यानी अब्बल तो परमाणुओं को वह मिलाप - अंग छोड़ना पड़ता है कि जिमकी वजह से मादे की ठोस अवस्था कायम है और इसके बाद जब माई की दूसरी यानी जलवत् तरल अवस्था हो जाती है तो इस अवस्था वाली चिकनी पकड़ छोड़नी होती है और फिर वजन यानी गुरुत्व पैदा करने वाली पृथ्वी की आकर्षण - शक्ति खारिज करनी पड़ती है और बाद में परमाणुओं के रगड़ के साथ पृथक् होने पर प्रकट होने वाली दशा , जो गर्मी या ताप की अवस्था है , पार करनी होती है । इसके बाद परमाणु फूट कर अयन अवस्था को प्राप्त होते हैं । खपाल रहे कि हर तबदीली में यानी एक अवस्था से दूसरी में दाखिल होने पर परमाणुओं की आजादी और ताकत बढ़ती चली जाती है ।
50 - अवतारों और पैग़म्बरों के ब्रह्मांड से आने का सुबूत ।
 ऊपर बयान किया गया कि प्रचलित मतों के अवतार व पैग़म्बर इस लोक में पानी पृथ्वी पर ब्रह्मांडी मन के स्थानों से आये । इसका सुबूत उन महापुरुषों को प्रकट की हुई पवित्र पुस्तकों में मौजूद है क्योंकि जो अंतरी भेद उन पुस्तकों में वर्णन किये गये हैं उनसे प्रात्म विद्या जानने वालों को साफ मालूम होता है कि उन महापुरुषों की मंजिले मकसूद यानी उनका निशाना रचना के दूसरे दर्ज के अंदर वाकै है । साधारण मनुष्य अलबत्ता इन बातों के समझने में लाचार हैं इस लिये उनको मुख्तलिफ प्रचलित मतों के सिद्धांतों यानी पहुँचने की मंजिलों में कोई फर्क मालूम नहीं होता और बहुत सी ऐसी बातें , जो आम लोगों को जाहिरा असंभव या हँसी के लायक मालूम होती हैं , वाकिफकारों के लिये अंतरी मुकामात और सुरत की चढ़ाई का भेद बयान करती हैं । मसलन् कहा जाता है कि मुहम्मद साहब अपने मशहूर घुर्राक घोड़े पर सवार होकर आकाश में चढ़ गये और चढ़ाई के दौरान में उन्होंने शकुलकमर किया यानी चंद्र के दो टुकड़े कर डाले । ये बातें साधारण मनुष्यों को , जो अंतरी भेद को पारिभाषिक बोली से नावाकिफ हैं और जिन्होंने अंतरी साधन के मुतअल्लिक कोई शिक्षा नहीं पाई है , महज गप्प यानो मिथ्या पचन मालूम होंगी लेकिन किसी आध्यात्मिक विद्यालय के छात्र यानी विद्यार्थी को इनके दूसरे ही अर्थ दरसते हैं । यह समझता है कि पुरांक घोड़े से मतलब , जिस पर पैराम्बर साहब सवार हुए थे , रचना के तीसरे भाग यानी पिंड देश की सब से ऊँचे दर्जे वाली बिजली - शक्ति से है और चूंकि यह शक्ति इस देश के तमाम स्थूल पदार्थों की जान यानी रूह के तौर पर है इस लिये इसी धार पर सवार होकर चलने से ऊँचे चढ़ाई हो सकती है । इस धार का मखजन यानी सोत चंद्रस्थान में वाकै है । चंद्र से यहाँ पर मतलप पृथ्वी के उपग्रह चाँद से नहीं है । वह चंद्रस्थान पृथ्वी पर चमकने वाले सूरज के परे वाकै है और मनुष्य - शरीर के छठे चक्र यानी सुरत की बैठक के मुकाम से मुताविकत रखता है । इस मुकाम के परे जाने के लिये जरूरी है कि यह केंद्र यानी चक्र बेधा जाये । जय पैग़म्बर साहब इस चक्र को वेध कर पार हो गये तो आध्यात्मिक बोली में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने चंद्र के दो टुकड़े कर दिये । बाद में पैगम्बर साहब को दूर से एक जगमगाती हुई लाट पानी ली का दर्शन हुआ जिसको वैदिक धर्म में ज्योति कहा गया है और जो मायाशवल ब्रह्म की अर्धाङ्गनी है । मुहम्मद साहब पर तमाम हुक्म और इलहाम इसी स्थान से नाज़िल हुए और उनके उपदेश की मंजिले मकसूद यहीं पर खतम हो जाती है ।
       ऊपर बयान किया गया कि प्रचलित मतों के अवतार व पैग़म्बर इस लोक में पानी पृथ्वी पर ब्रह्मांडी मन के स्थानों से आये । इसका सुबूत उन महापुरुषों को प्रकट की हुई पवित्र पुस्तकों में मौजूद है क्योंकि जो अंतरी भेद उन पुस्तकों में वर्णन किये गये हैं उनसे प्रात्म विद्या जानने वालों को साफ मालूम होता है कि उन महापुरुषों की मंजिले मकसूद यानी उनका निशाना रचना के दूसरे दर्ज के अंदर वाकै है । साधारण मनुष्य अलबत्ता इन बातों के समझने में लाचार हैं इस लिये उनको मुख्तलिफ प्रचलित मतों के सिद्धांतों यानी पहुँचने की मंजिलों में कोई फर्क मालूम नहीं होता और बहुत सी ऐसी बातें , जो आम लोगों को जाहिरा असंभव या हँसी के लायक मालूम होती हैं , वाकिफकारों के लिये अंतरी मुकामात और सुरत की चढ़ाई का भेद बयान करती हैं । मसलन् कहा जाता है कि मुहम्मद साहब अपने मशहूर घुर्राक घोड़े पर सवार होकर आकाश में चढ़ गये और चढ़ाई के दौरान में उन्होंने शकुलकमर किया यानी चंद्र के दो टुकड़े कर डाले । ये बातें साधारण मनुष्यों को , जो अंतरी भेद को पारिभाषिक बोली से नावाकिफ हैं और जिन्होंने अंतरी साधन के मुतअल्लिक कोई शिक्षा नहीं पाई है , महज गप्प यानो मिथ्या पचन मालूम होंगी लेकिन किसी आध्यात्मिक विद्यालय के छात्र यानी विद्यार्थी को इनके दूसरे ही अर्थ दरसते हैं । यह समझता है कि पुरांक घोड़े से मतलब , जिस पर पैराम्बर साहब सवार हुए थे , रचना के तीसरे भाग यानी पिंड देश की सब से ऊँचे दर्जे वाली बिजली - शक्ति से है और चूंकि यह शक्ति इस देश के तमाम स्थूल पदार्थों की जान यानी रूह के तौर पर है इस लिये इसी धार पर सवार होकर चलने से ऊँचे चढ़ाई हो सकती है । इस धार का मखजन यानी सोत चंद्रस्थान में वाकै है । चंद्र से यहाँ पर मतलप पृथ्वी के उपग्रह चाँद से नहीं है । वह चंद्रस्थान पृथ्वी पर चमकने वाले सूरज के परे वाकै है और मनुष्य - शरीर के छठे चक्र यानी सुरत की बैठक के मुकाम से मुताविकत रखता है । इस मुकाम के परे जाने के लिये जरूरी है कि यह केंद्र यानी चक्र बेधा जाये । जय पैग़म्बर साहब इस चक्र को वेध कर पार हो गये तो आध्यात्मिक बोली में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने चंद्र के दो टुकड़े कर दिये । बाद में पैगम्बर साहब को दूर से एक जगमगाती हुई लाट पानी ली का दर्शन हुआ जिसको वैदिक धर्म में ज्योति कहा गया है और जो मायाशवल ब्रह्म की अर्धाङ्गनी है । मुहम्मद साहब पर तमाम हुक्म और इलहाम इसी स्थान से नाज़िल हुए और उनके उपदेश की मंजिले मकसूद यहीं पर खतम हो जाती है ।
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