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हमारे ऊपर के बयान से परम पेतन शक्ति के विशेष अंग के अकह व अपार तेज का मोटा सा अनुमान हो सकता है । अप मागे उसके न्यून अंग ( कुल मालिक के चरण अंग ) का इसी दंग का अनुमान पेश करते हैं । मौजूदा रचना के उलटने के फी अमल से , जो दफा ७६ में पपान हुमा , साफ जाहिर है कि कुल रचना चेतन शक्ति के न्यून अंग से प्रकट हुई है और रचना की जानिब सरसरी नजर डालने से मालूम होता है कि हमारे इस लोक यानी नजराई देनी वाली सृष्टि ही के अंदर असंख्य प्रकाशवान् गोले , जिनको सूर्य , चंद्र , तारा वगैरह नामों से पुकारा जाता है , जगमगा रहे हैं और जैसा कि दफा ८ ९ में दिखलाया जायेगा , यह लोक रचना के तीसरे दर्जे यानी पिंड देश का एक हिस्सा है । तीसरे दर्जे के परे रचना का दूसरा दर्जा पानी प्रांड देश वाकै है जिसका तेज और शक्ति पिंट के मुकाबले में कहीं यादा है । इस लिये जाहिर है कि रचना के इन दो दो ही के अंदर ऐसा जबरदस्त तेज व प्रकाश मौजूद है कि जिसका अनुमान मनुष्य की साधारण दर्शन और विचार शक्तियों की ताकत से बाहर है । अब अगर पिंड और ब्रह्मांड के तेज और प्रकाश में उन निर्मल चेतन स्थानों का तेज और प्रकाश शामिल कर लिया जाय , जा चतन शक्ति के अपार व अनादि भंडार के नीचे वाकै हैं , तो हमको न्यून अंग के कुल प्रकाश का जोड़ मालूम हो जायेगा । वैसे तो न्यून अंग अपने हिसाब से इतना रोशन था कि मनुष्य की दृष्टि के लिये उसका झेलना कतई नामुमकिन है लेकिन विशेप अंग को अपने प्रचंड तेज के मुकाबले में वह पीला सा प्रतीत होता था , कम व वेश उसी तौर पर जैसे कि सूर्य के जबरदस्त तेज के सामने पूर्णमासी का चंद्रमा बेरौनक मालूम होता है ।
८२- मनुष्य ज्ञान भ्रमात्मक ज्ञान नहीं है ।
इसमें शक नहीं कि चेतन शक्ति के अनादि न्यून और अधिक अंगों का जो वर्णन ऊपर किया गया है वह मनुष्य बुद्धि के अति नीच घाट का वर्णन है और इस पर अगर कोई यह एतराज कर दे कि इस तरह के बयान से असली दशा का वर्णन मुमकिन नहीं है तो हमारा यह बयान मशकूक ( संदिग्ध ) हो जाता है । इस लिये हमारे वास्ते जरूरी है कि मजमून के सिलसिले को यहाँ रोककर इस एतराज से जो भ्रम पैदा होता है अव्वल उसको दूर कर दें । यह एतराज जैल के दावा की बुनियाद पर कायम होता है :-
हमारे अंदर इस प्रत्यक्ष सृष्टि यानी जगत् का सब ज्ञान मन पर पड़ने वाले जगत् के प्रतिबिम्ब ही से पैदा होता है । अगर मन पर जगत् का प्रतिबिम्ब न पड़े तो हमको उसका कोई ज्ञान नहीं हो सकता । इससे साबित होता है कि प्रतिविम्य और जगत् में कार्यकारण भाव संबंध कायम है । लेकिन यह जाहिर है कि कार्य का ज्ञान होने से कारण का ज्ञान होना लाजिमी नहीं है । चुनाँचे अगर वे तमाम जीव , जिन पर जगत का प्रतिबिम्ब पड़ता है , गायब हो जावें तो कारण तो बना ही रहेगा लेकिन कार्य का प्रभाव हो जायेगा और जो अवस्था रहेगी वह कार्य की अवस्था न होगी । इससे साबित हुआ कि सृष्टि का जो कुछ ज्ञान हमको इस वक्त हासिल है वह महज ऐसा ज्ञान है कि जो जीव को भासता है , न कि असल या स्वतंत्र ज्ञान ( इल्मे मुतलक ) । यह एतराज वाकई लाजवाब है बशर्ते कि यह मान लिया जावे कि सिर्फ जीवात्मा यानी सुरत ही को मानसिक ज्ञान लेने की योग्यता हासिल है और रचना में दूसरे किसी के अंदर यह योग्यता मौजूद नहीं है , मगर जैसा कि पीछे बयान किया गया ( देखो दफात १६ लगायत २२ ) तमाम सुरतें चेतन शक्ति के अनंत भंडार अर्थात् कुल मालिक से निकली हुई मुख़्तलिफ दर्जे की किरनियाँ हैं और उनके निज खवास चेतनता , आनंद और सत्ता - कुल मालिक के जौहर ही से बरामद हुए हैं और जो शरीर सुरतों ने अपने लिये रचे हैं वे रचना के नमूने पर तैयार किये गये हैं , दूसरे लफ़्जों में सुरत का शरीर ( मालमेसोर ) बालमेकबीर की नकल है । ऐसी सूरत में सुरत के ज्ञान लेने के स्वास मी कुल मालिक की चेतनता यानी ज्ञानशक्ति की अद नकल ठहरते हैं और अगर यह दुरुस्त है तो मानना होगा कि मनुष्य को रचना बहुत कुछ वैसी ही दरसती है जैसी कि कुल मालिक को और मनुष्य को दरसने वाला स्वरूप ही रचना का असली स्वरूप है । इस लिये अगर हमारा मानसिक ज्ञान सच्ची पातों की बुनियाद पर कायम है और अनुमान की सत्य रीति के अनुसार हासिल किया गया है तो उसको खयाल में भी भ्रमात्मक ज्ञान करार नहीं देना चाहिए ( परतावे में तो कोई पहले ही करार नहीं देता ) ।
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