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७८ - कुल मालिक का अनादि न्यूनाधिक भाव ।
पीछे दफा ११ में बयान कर चुके हैं कि चेतन शक्ति ही आदि शक्ति है और प्रकृति की जितनी भी शक्तियाँ हैं उन सबका ज़हूर इस आदि शक्ति का मुख़्तलिफ दर्जे के पदों के साथ संयोग होने पर हुआ है और यह भी जाहिर कर चुके हैं कि इस आदि शक्ति का , जो सत , चित् और आनंद रूप है , खुद कुल मालिक ही सोत पोत है इस लिये आदि शक्ति के अंदर न्यूनाधिक भाव मानने से नतीजा निकलता है कि खुद कुल मालिक के अंदर यह भाव मौजूद था ।
७६ - दो ध्रुवों या सिरों का बयान ।
संत मत की पारिभाषिक बोली में वह मुकाम , जिस से चेतन शक्ति किसी कदर खिंच गई थी , कुल मालिक का चरण अंग कहलाता है और वह मुकाम , जिसमें शक्ति भरपूर मौजूद थी , उसका मस्तक अंग कहलाता है । वैज्ञानिक परिभाषा में इनको चेतन शक्ति के धनात्मक और ऋणात्मक ध्रुव ' यानी मुसबत व मनफी क्रुतुब या सिरे कहते हैं । मालूम हो कि चरण अंग में चेतनता का पूर्ण अभाव नहीं था बल्कि बहुत कुछ बची हुई चेतन शक्ति वहाँ मौजूद थी , अलबत्ना उसकी तेजी ( intensity ) में कमी थी । इस अनादि अवस्था की तासीर यहाँ पर स्थूल प्रकृति के अंदर भी दिखलाई देती है , चुनाचे देखो स्थूल से स्थूल माद्दे के अंदर भी कुछ न कुछ शक्ति जरूर मौजूद है । यह दुरुस्त है कि ऊपर के लेख के पजिय न्यूनाधिक भाव मानने से ' येअंत ' के अंदर कुदरती तौर पर ' श्रतवान् ' ( महद्द ) होने का दोष या जाता है क्योंकि न्यूनाधिक भाव के सिलसिले में हम लोगों को हमेशा वास्ता दोनों अंतवान् अंगों ( ध्रुवों ) ही से पड़ता रहा है लेकिन मालूम हो कि पेभंत की अवस्था का विचार करते वक़्त इस भाव के मुतअल्लिक अपने सपालात को सर्व अंग में घटाना दुरुस्त न होगा बल्कि मुनासिब यह होगा कि तवज्जुह सिर्फ दोनों अंगों की चेतनता की तेजी ( Intensity ) के फ़र्क पर दी जावे । अगर हम न्यून अंग को आकाश के अंदर चलते हुए बादल के एक टुकड़े से तशवीह दें और विशेष अंग को सुद आकाश से , तो इस दृष्टांत से जिस न्यूनाधिक भाव का हम जिक्र कर रहे हैं उसका लखाव दर्शनेंद्रिय - ज्ञान के द्वारा बहुत कुछ कामयाबी के साथ हो सकता है और खयालात के संग - दोष की वजह से अंतवान् होने का जो भ्रम पैदा होता था वह एक दम दूर हो जाता है क्योंकि यह जाहिर है कि बादल के टुकड़े से आकाश की अनंतता व अपारता में कोई फर्क नहीं पाता ।
८० - चेतन शक्ति के विशेष ( मस्तक ) अंग के तेज का बयान ।
चेतन शक्ति का विशेष ( मस्तक ) अंग यानी कुल मालिक परम सत् , परम चेतन और परम अानंद रूप होने के अलावा परम तेजोमय यानी परम प्रकाश स्वरूप भी है । प्रकृति की जितनी भी शक्तियाँ हैं सबकी सब बिजली शक्ति की सूक्ष्मता को प्राप्त होने पर और उनके गिलाफों यानी पदों की रुकावट का जोर जाते रहने से अत्यंत प्रकाशवान स्वरूप में प्रकट हो सकती हैं । इससे अनुमान किया जा सकता है कि चेतन शक्ति , जो बिजली शक्ति से कहीं ज्यादा सूक्ष्म ? श्रीर खुद उसकी जान है , कैसी प्रकाशवान् होनी चाहिए । सब तो यह है कि हमारी साधारण शान लेने और विचार करने की शक्तियां ऐसी तुच्छ और नाकारा हैं कि उनकी मारफ़त उस परम श्रानंदमय कुल मालिक के नूर व जलाल की अजमत का कयास में लाना कतई नामुमकिन है । अगर किसी प्रकार हमारी दर्शन शक्ति ऐसी ताकतवर बन जावे कि हम करोड़ों सूर्यों के प्रकाश को एक बिंदु पर एक ही समय में एकत्र करने से जो प्रचंड तेज प्रकट हो सकता है उसका ज्ञान और आनंद ले सकें तो ऐसे प्रकाश व आनंद से भी उस परम प्रकाश रूप कुल मालिक के बेपायाँ नूर व जलाल की शान का उसी ढंग का पता चलेगा जैसा कि पानी के एक बदहैसियत क़तरे के देखने से समुद्र की शान और लहरों का पता चल सकता है ।
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