Friday, December 11, 2020

८३ - कुल मालिक की आदि दशा का बयान

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८३ - कुल मालिक की आदि दशा का बयान ।



       रचना से पहले एक कुल मालिक ही था लेकिन वह न्यूनाधिक यानी ध्रुवीय भाव में था । उस दशा में वह अपने आप में रत यानी सरशार था और मानो सारी की सारी अपार परम चेतनता का अभिमानी वह एक ही पुरुष था । वह परम पुरुष रूप , रंग , रेखा से रहित था और परम प्रेमानंद , परम प्रकाश , परम ज्ञान और परम सत्ता इन चारों के मेल से उसका जौहर बना था यानी जैसे कई एक रंगों  के बाहम मिलने से सफेद रोशनी तैयार होती है उसी तरह परम प्रेमानंद , परम प्रकाश , परम ज्ञान और परम सत्ता इन चारों के बाहम मिलने से कुल मालिक का जौहर बना था । न्यून अंग की दशा , जो चेतनता की कमी की वजह से समस्त चेतनता के समूह यानी कुल मालिक से किसी कदर मुख्तलिफ थी , कुल मालिक को पूरी तरह ज्ञात थी लेकिन न्यून अंग खुद इस ज्ञान में शरीक न था बल्कि वह सक्ते ( समाधि ) की सी हालत में था । इस अंग में बहुत से दर्जे थे और जो हिस्सा उसका विशेष अंग के निकट था वह बमुकाबिले उसके केंद्र और केंद्र से संयुक्त यानी मिले हुए हिस्सों के अधिक चेतनता रखता था । न्यून अंग के देश में चेतनता की कमी , जैसा कि ऊपर बयान किया जा चुका है , चेतन शक्ति का कुल मालिक की जानिब खिचाव होने की वजह से वाकै हुई थी ।

 ८४ - सुरत अंशों की आदि दशा का बयान ।

       

    रचना से पहले यही खिंचाव न्यून अंग को झीने आकर्षण ( कशिश ) द्वारा उसकी अनादि अचेत ( धुंधकार ) अवस्था में ठहराये हुए था । जिन झीने आकर्पण की धारों की मारफत यह अचेत अवस्था ठहरी हुई थी उनके अंदर एक ही रुख में काम करने वाले असंख्य नुक्ते कायम थे । इन नुक़्तों की संयुक्त क्रिया ' से जो चेतन धार जारी हुई वह खुद परम पुरुष ( कुल मालिक ) से सदा संयुक्त थी और उसी के जरिये से उसको न्यून अंग की सारी कैफियत का ज्ञान प्राप्त था । चुनांचे कुल मालिक को इस वक़्त भी मौजूदा रचना के स्थूल से स्थूल हिस्से का ज्ञान उसके अंतर में मौजूद कमजोर से कमजोर चेतन अंश हो के जरिये से प्राप्त होता है । गोया कि अंतर्गत चेतन अंश हमेशा सचेत रहता है और सिर्फ बाहरी शिलाफ या पर्दा अचेत बन जाता है । न्यून अंग के नुक्ते बहैसियत खुद यानी धार से अलहदा खयाल करने पर अचेत अवस्था में थे और ये ही नुक्ते आदि दशा में स्थित सुरतें थीं यहाँ पर दोबारा जाहिर कर देना मुफीद होगा कि लफ़्ज़ ' नुव्रता ' से त्रम में आकर यह खयाल नहीं करना चाहिए कि मुरत अंशों के अंदर की शक्ति निहायत ही खफीफ यानी तुच्छ थी । सब कोई जानता है कि सूरज की किरण मामूली लैम्प की रोशनी की किरण के मुकाबिले में प्रकाश और कई दूसरी बातों के लिहाज से बहुत ज्यादा ताकतवर होती है और चूंकि इन दोनों किरणों के असर हमारे तजरुबे में बखूबी आये हुए हैं इस लिये उनके बाहमी फर्क को हम किसी हालत में नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते , लेकिन एक चीज़ से दूसरी की उपमा देते वक्त जब कभी ऐसा होता है कि हम को तजरुबा या ज्ञान सिर्स एक ही चीज़ का रहता है तो उपमा से दूसरी चीज़ की निसबत जो अनुमान किया जाता है वह अक्सर गलत होता है और सीधे सादे उज्जों में भी और के और खयालात दिल में पैदा हो जाते हैं । मसहन् अब कमी हम सूरज का जिक्र करते हैं तो लफ़्ज्ञ ' मूरज ' से रोजाना तलबे के मुताबिक हमको अनुमान एक चमकती हुई थाली का होता है लेकिन अगर किसी शख्स की दृष्टि ऐसी जबरदस्त और वसीम ( बड़ी ) हो कि बह सूरज के असली दराज कद व कामत और प्रकाश को वैसे ही मुकम्मल तौर पर देख सकता हो जैसा कि हम एक संतरे को देखते हैं तो उस शाम के लिये लफ़्ज़ ' मूरज ' इस्तेमाल करने पर वे ही अर्थ न होंगे जो साधारण मनुप्यों के लिये होते हैं क्योंकि उसका सूर्य संबंधी जान आम लोगों के ज्ञान से बिलकुल मुरललिक है । इस लिये बेहतर होगा कि लफ़्ज्ञ ' नुनता ' का अर्थ लगाते वक्त इन सब बातों का लिहाज रक्खा जाये और मुरत अंशों या नुत्तों को कोई बदहसियत या तुच्छ चीज़ खयाल न किया जाये बल्कि यह समय जावे कि मुरत अंशे जबरदस्त गुप्त शक्ति और आकर्षण के केंद्र हैं डिन पर उनकी पृथक क्रिया के कारण ( जो उनकी संयुक्त क्रिया से अलहदा थी ) खोल चढ़े हुए थे । मिसाल के तौर पर अगर सुरतों की संयुक्त क्रिया को शब्द से तशबीह दी जावे तो उनकी पृथक यानी गिलास पैदा करने वाली क्रिया को शब्द के संग पैदा होने वाली ध्वनि कह सकते हैं । रचना से पहले सुरत अंशें इन गिलाफ़ों से ढकी हुई अचेत अवस्था में पड़ी थीं क्योंकि उनकी चेतनता का मुख्य भाग आदि भंडार में लीन था । सुरत अंशों की संयुक्त क्रिया से न्यून अंग समस्तरूप से यानी बतौर कुल के कायम था और उनकी पृथक क्रिया से हर एक मुरत का अपना अपना गिलाफ कायम था ।

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