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८५ - आदि चेतन धार जारी होने से पहले आदि भंडार में हिलोर वाक़ हुई ।
यह बयान किया जा चुका है कि नुक्तों यानी सुरत अंशों की संयुक्त क्रिया से अनादि झीने आकर्षण का सिलसिला जारी था । कितने ही जमाने तक इस आकर्षण से किसी तरह की तबदीली या तफरीक जहूर में नहीं आई लेकिन जब समय आया तो मंडार की तरफ आकर्षण ज्यादा बेग के साथ होने लगा , जिसकी वजह से न्यून अंग की चेतनता में , जो कि आगे ही कम थी , और भी ज्यादा कमी हो गई यानी आदि भंडार या विशेष अंग में जिस कदर चेतनता पहले से खिंची हुई थी उससे और ज्यादा खिंच गई और न्यून अंग का वह हिस्सा , जिसमें यह नई कमी वाकै हुई , परम पुरुष यानी विशेष अंग से परे हटने लगा । यह सिलसिला रचना शुरू होने के ऐन कब्ल जारी हुश्रा और कुछ अरसे तक कायम रहा । जब मुनासिब वक्त आया तो आदि भंडार के उस हिस्से से , जो न्यून अंग के करीयतरीन था , भारी हिलोर उठकर प्रादि चेतन धार प्रकट हुई । यह धार चुम्बक शक्ति की नुम्यक बनाने वाली क्रिया की तरह ( देखो दफा ६३ ) चेतनता जगाने की क्रिया ( Process of Spiritualisation ) के रूप में आदि शक्ति का इजहार था और इससे ग़रज़ यह थी कि न्यून अंग का जो हिस्सा आदि चेतन धार का विस्तार ( अंग ) बनने के काबिल हो वह कुल मालिक की हद्द के अंदर कायम हो जाये और उसमें इस कदर चेतनता भर दी जाये कि उसकी जाती चेतनता की कमी की वजह से दूसरे चेतनता से हीन भागों वाली खराब सूरत , जिसका जिक्र आगे चलकर करेंगे , उसके अंदर नमूदार न होने पाये ।
८६ - शब्द धार और सुरत धार
चेतन शक्ति के संयोग कायम करने वाले अंग ( Uniting Faculty ) को चेतन शब्द धार कहते हैं और केंद्र निर्माण यानी मरकज कायम करने वाले अंग को सुरत धार कहते हैं । ये दोनों अंग एक दूसरे के आश्रित हैं । शब्द चेतन शक्ति का कारकुन रूप है और सुरत उसी का भंडार रूप है । शब्द का काम आकर्षण यानी कशिश करना है और सुरत का काम केंद्र निर्माण यानी मरकज कायम करना है । सुरत और शब्द धारों के इन दो खवास की वजह से नीचे मंडलों में लिंग भेद यानी स्त्री पुरुष का फर्क जानदारों के अंदर कायम हुआ
८७ - निर्मल चेतन देश और उसके छः स्थान ।
चूँकि कुल मालिक खुद अनादि ध्रुवीय यानी न्यूनाधिक भाव में था और उसमें तीन अलहदा अलहदा अंग कायम थे यानी एक विशेष चेतन का अपार ( मस्तक ) अंग , दूसरा मध्य ( काया ) अंग और तीसरा न्यूनचेतन ( चरण ) अंग । इस लिये रचना के शुरू में जो शब्द और सुरत धारें कुल मालिक से निकली और जो प्राण यानी अंदर जाने वाले और अपान यानी बाहर आने वाले श्वासों की दो धारों के मुशावह थीं उन्होंने भी अपने तई न्यून अंग के उस हिस्से में , जो कुल मालिक के ऐन संमुख था , तीन तीन भागों में तकसीम किया । जैसे जानदारों के साँस लेने पर जो ऑक्सीजन गैस भीतर दाखिल होती है वह साँस निकालने पर शरीर के मुख्य मसाले से मिल कर ( कारबोनिक एसिड गैस बन कर ) बाहर पाती है लेकिन चूंकि कुल मालिक में आला दर्जे की निर्मल चेतनता के सिवाय और कुछ कतई नहीं है इस लिये उससे बाहर भाने वाला साँस उसके जौहर यानी भाला दर्जे की निर्मल चेतनता हो से संयुक्त होना चाहिए और इस लिये बाहर आने वाली सुरत धार , जो कुल मालिक से बरामद हुई , वैसी ही चेतन होनी चाहिए जैसी कि अंदर जाने वाली शब्द धार , जो उसमें लीन होती है । शब्द धार के ध्रुवीय भाव से जो तीन स्थान बने वे राधास्वामी , अगम और अलख कहलाते हैं और सुरत धार के ध्रुव पीय भाव से जो तीन स्थान कायम हुए उनके नाम अनामी , सत्तलोक और मैंवरगुफा हैं । मालूम हो कि चूंकि सुरत धार चेतनता जगाने की क्रिया ( Process of Spiritualisation ) के द्वारा बाहर को फैली इस लिये इसका निवास स्थान शब्द धार की निसवत , जिसका काम सिर्फ भंडार की जानिब आकर्षण है , किसी कदर नीचा है । चुनाँचे सुरत धार के तीन स्थानों का सेट ( जोद ) , जिसकी तफसील ऊपर बयान हो चुकी है , शब्द धार के स्थानों के सेट से नीचे वाले है और उसकी चेतनता मी शब्द धार के स्थानों के मुकाविले में किसी कदर कम दर्जे की है । इन छः स्थानों में ये दोनों धारें एक रूप हो रही है और दोनों मिलकर ठीक वैसे ही काम करती हैं जैसे कि पुम्पक शक्ति की लोहे को चुम्बक बनाने और उसको अपनी जानिय खींचने की संयुक्त क्रियाएँ देखने में आती हैं । बहरहाल इन दो धारों की मौजूदगी की वजह से निर्मल चेतन देश में छः स्थान कायम हुए । अब भागे थोड़ा सा हाल इन स्थानों के धनियों और वासियों का बयान किया जाता है ।
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