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८८ - निर्मल चेतन स्थानों के वासी ।
जब न्यून अंग की कशिश विशेष अंग की जानिब काफी वेग के साथ होने लगी तो वे गिलाफ़ या खोल , जो सुरतों की केंद्र निर्माण क्रिया की वजह से कायम थे , झड़कर फासले पर हट गये और सुरतें आदि अचेत गिलाकों के इस प्रकार झड़ जाने से मानों अनादि निद्रा से जाग्रति में आ गई क्योंकि गिलाफ़ों के हट जाने से सुरत अंशों की धार गिलाफ़ कायम रखने की क्रिया से बहुत कुछ आजाद हो गई और नीज़ पहले की निसबत ज्यादा चेतन घाटों पर खिंच आने से सुरतों को विशेष चेननता प्राप्त हो गई । सुरतों की यह जाग्रति जीव के सुपुप्ति अवस्था से गुजरकर सक्त की हालत में प्रवेश करन क अमल से पहुन कुछ मुशावहत रखती है । सक्ते की हालत में साँस का आना जाना और शरीर के अंदर खून का घूमना बंद हो जाता है क्योंकि मुख्य चेतन धारें , जिनके पासरे जाग्रत , स्वप्न और गहरी नींद की अवस्थाएँ कायम रहती हैं , सूक्ष्म घाट पर खिंच जाती हैं । ये सब बातें जीवों की मौत के वक़्त भी हुआ करती हैं अलबत्ता इतना फर्क रहता है कि उस बत धारें ज्यादा ऊँचे घाट पर खिचती हैं । जैसे सुरत सूक्ष्म घाट पर पहुँचते ही अपने लिये वहाँ के मसाले से स्थूल शरीर से मिलता जुलता हुआ एक सूक्ष्म शरीर तैयार कर लेती है उसी तरह आदि में भी ज्योंही सुरत अंशों ने अपने आदि अचेत गिलाफों से रिहाई हासिल की त्योंही उन्होंने उन ऊँचे चेतन मंडलों के मसाले से , जिन पर वे खिंच कर पहुँची , अपने लिये नये चेतन शरीर तैयार कर लिये । इन ऊंचे स्थानों का मसाला क्या था ? भंडार की जानिय कशिश में बेग की ज्यादती होने पर जो अचेत गिलाफ अपने असली मुकाम से नीचे झड़कर गिरे वे ही इन स्थानों का मसाला बने । इस रह व बदल से इन गिरने वाले गिलाफों के अंदर भी सुरतों को संयुक्त चेतन धार की सी क्रियात्मक शक्ति आ गई और वे समस्त रूप से सचेत अवस्था को प्राप्त हो गये । जाहिर है कि इस किस्म के मसाले से तैपारशुदा शरोर सुरत अंशों की किसी चेतन क्रिया में बाधक नहीं हो सकते थे । ये मुरतें , जिनको अचेत मसाले के शरीर प्राप्त हुए , बलिहाज अपने निवास स्थानों के दर्जे के हंस और परमहंस कहलाती हैं यानी जो सुरतें ऊपर के तीन स्थानों में मुकीम हैं वे परमहंस कहलाती हैं और जो नीचे के तीन स्थानों में रहती हैं वे हंस कहलाती हैं । अगरचे निर्मल चेतन स्थानों के वासियों में लिंगभेद यानो स्त्री पुरुप भाव जाहिर नहीं है लेकिन बलिहाज़ इसके कि किसी में शब्द क्रिया प्रधान है और किसी में मुरत अंग प्रधान है , पहली किस्म को पुरुषवर्ग और दूसरी किस्म सा खी पुरुष व्यवहार नदारद है । को स्त्रीवर्ग कह सकते हैं । लेकिन याज्ञह हो कि इन सुरतों में यहाँ का सा स्त्री पुरुष व्यवहार नदारद हैं।
८९ - अगमपुरुष यानी आदिधार के प्रथम केंद्र का बयान ।
आदि चेतनधार ने निज भंडार से रवाना होकर जो पहला केंद्र कायम किया वह कुल मालिक राधास्वामी के अपार धाम से निचले स्थान का प्रथम धनी हुआ । इस धनी को अगमपुरुष कहते हैं और यह उस भारी चेतनता का समूह है जो रचना से पहले न्यून अंग से खिंचकर कुल मालिक के विशेष अंग में शामिल हो गई थी और जिसमें कुल मालिक के प्रसंग से बहुत कुछ विशेषता आ गई थी और जिसके बल के अंदर आदिधार के संबंध की प्राप्ति से कोई कमी वाकै नहीं होने पाई है । नीचे के मंडलों में चेतनता जगाने के अलावा आदिधार के खाँ होने की एक भारी बजह यह भी थी कि कुल मालिक उस चेतन को , जिसे उसने रचना से पहले के अनादि न्यूनाधिक भाव के सिलसिले में अपने विशेष अंग से नीचे दर्जे में निवास दिया था , अपनी अनादि अवस्था के तकाजे की वजह से हमेशा के लिये अपने अंदर शामिल नहीं रख सकता था ।
चुनाँचे कुल मालिक ने मुनासिब वक्त आने पर उस चेतन को अपने जौहर के असर से खूब भर कर ( प्रसादी करके ) वापिस कर दिया ताकि न्यून अंग भी मय अपनी असंख्य सुरत अंशों के सचेत और आनंदमय अवस्था को प्राप्त हो जावे यानी अचेत अवस्था दूर होकर उसके अंदर क्रियात्मक अवस्था कायम हो जाये । जब आदिधार निज भंडार से प्रकट हुई तो उसके संग ऐसे जबरदस्त प्रकाश का इजहार हुआ कि मानो इर्द गिर्द के देश में चमकते हुए गोलो से जड़ी हुई चादरें तन गई । इन गोलों को पारिभाषिक बोली में सूर्य और चंद्र कहते हैं । जिनके अंदर शब्द अंग प्रधान है उनको मूर्य कहते हैं और जिनके अंदर मुरत अंग प्रधान है उनको चंद्र कहते हैं । इन गोलों की मारफत इर्द गिर्द के उस देश में , जिसका अमी शिक्र हुया, मादि मंडार की चेतनता पहुँपाई गई , पुनाँचे हमारे इस लोक में भी सूर्य , चंद्र और तारागण से शक्ति इसी तरीके पर बहम पहुँचती है । अलावा इसके इन चेतन गोलों ने उस देश की सुरतों के लिये निवास स्थान का भी काम दिया । मालूम होवे कि निर्मल चेतन रचना के और भागों की तरह ये गोले भी चेतन और जगे हुए थे । यह देश , जिसका ऊपर बयान हुआ , वह धाम है कि जो आदिधार के सोतपोत ( आदि भंडार ) के उस हिस्से को घेरे हुए है जहाँ से आदिधार प्रकट हुई और अगमपुरुप का मंडल उस धाम के नीचे वाले है जिससे अगमलोक को कुल मालिक राधास्वामी के धाम का सदर दरवाजा कह सकते हैं
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