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६४ - ब्रह्मांड की चेतनता ।
ब्रह्मांड को चोटी के स्थान यानी मुन्न से उसके नीचे के स्थान यानी त्रिकुटी तक चेतनता निहायत भाला दर्जे की है , यहाँ तक कि वह सुन्न से ऊपर के स्थानों की चेतनता से लग्गा खाती है लेकिन त्रिकुटी से नीचे चेतन के साथ सूक्ष्म प्रकृति पानी माया की मिलौनी होने की वजह से इसकी निर्मलता जाती रही है । त्रिकुटी से नीचे की चेतनता को इस लिये प्राण कहते हैं , लेकिन प्राण से हमारा मतलब वायु तत्व से नहीं है । मुन्न स्थान से जो तीन धारें रयाँ हुई ( देखो दफा ९ ३ ) वे चकनाल के निचले सिरे से आगे बढ़ने पर इडा , पिंगला और सुषुम्ना तीन सूक्ष्म धारों में फट गई । मुषुम्ना का रास्ता बीच में है , इडा का याई तरफ और पिंगला का दाहिनी तरफ । ब्रह्मांड के निचले भाग में इन तीन धारों के द्वारा ही चेतनता बहम पहुँचती है । मुन्न स्थान से जो तीन चेतन धारे रयाँ हुई उन्होंने निर्मल चेतन स्थानों के नमूने पर चमकते हुए गोले भी प्रकट किये और चूंकि ये घारें अलग अलग तीन स्थानों से जारी हुई थीं इस लिये यहाँ पर दो के बजाय तीन किस्म के गोले जाहिर हुए । इनमें से दो किस्में तो सूर्य और चंद्र की सी खासियत रखती हैं ( जिनका दफा ८ ९ में जिक्र हुआ है ) और तीमरी किस्म तारागण कहलाती है । ये तारागण वे सितारे नहीं हैं जिन्हें हम रोजाना आसमान पर देखते हैं और जो दर असल चाँद और सूरज ही हैं बल्कि इन तारागण के अंदर सम्यारों यानी पहों वाला खारसा कायम है ।
६५ - सुन्न स्थान के वासियों का बयान ।
कि निर्मल चेतन देश अपने धनियों और वासियों के अलावा खुद भी चेतन था इस लिये उस देश के मसाले से जो शरीर तैयार हुए उनमें बाहर मंडलों से मेल करने के लिये किसी खास बंदोबस्त को जरूरत न थी बल्कि ये शरीर खुद यह काम देते थे और इन शरीरों के अंदर निवास करने वालो मुरतें उनकी मारफत अपने चारों तरफ का भरपूर जान ले सकती थीं । ब्रह्मांड की चोटी के स्थान अर्थात् सुत्र के वासियों का भी कम व वेश ऐसा ही हाल है इस लिये उनको भी हंस कहते हैं अलबत्ता लिंग यानी स्त्री पुरुप का फर्क उनके अंदर किसी कदर प्रकट है , हरचंद खी पुरुष का सा व्यवहार वहाँ पर नहीं है । जिन सुरतों में खी - अंग प्रधान है उनको हंसिनी कहा जाता है और दूसरी सुरतों को हंस ।
६६ - त्रिकुटी वगैरह के वासी और तन्मात्राएँ ।
जो मसाला या परमाणु त्रिकूटी से खारिज हुए ( देखो दका ९ ३ ) वे बावजूद निहायत सूक्ष्म , निर्मल व शक्तिमान होने के ज्ञान - शक्ति से विहीन हैं इस लिये उनसे बने हुए महज शरीर बाहरी रचना का ज्ञान लेने के काबिल न हो सकते थे । पुनाचे उस स्थान में पंच ज्ञानेंद्रियों को अति सूक्ष्म रूप में रखकर वहाँ के और उससे नीचे के स्थानों के वासियों के लिये अपने इर्द गिर्द की कापनात ( सृष्टि ) के साथ तमस्तुक कायम करने और उसका मान लेने के द्वारे मुहय्या किये गये ।
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