Monday, December 21, 2020

६७ - तत्त्वों की तन्मात्राएँ , रूपों की उत्पत्ति और ज्ञानेंद्रियों के खवास


६७ - तत्त्वों की तन्मात्राएँ , रूपों की उत्पत्ति और ज्ञानेंद्रियों के खवास । 

        आकाश तत्त्व की तन्मात्रा श्रवणेंद्रिय के अंदर रक्खी गई और अग्नि , वायु , जल और पृथ्वी तत्वों को तन्मात्राएँ रूप , गंध , रस और स्पर्श को इंद्रियों के अंदर दाखिल की गई । चूंकि आकाश ( ईथर ) मादे की सब से सूक्ष्म अवस्था है और उसके अंदर शक्ति मी यकसरत भरी है इस लिये श्रवण शक्ति को ' शक्ति ज्ञान ' हासिल करने की ताकत कहना चेजा न होगा और ज्यों ही कोई शक्ति प्रकाश के घाट पर पहुँचती है वह फौरन् शब्द ज्ञान की शक्ल में महसूस होने लगती है । ' शक्ति शान ' से यहाँ पर हमारी मुराद शक्ति के क्रियावान् धाररूप के अनुभव से है और धाररूप से बाद में जो नतीजा पैदा होता है उसमे प्रपोजन नहीं है । जब शक्ति की धार रवाँ होने पर कोई केंद्र कायम कर लेती है तो नतीजा यह होता है कि प्रकृति पानी मारे के विखरे हुए जरों या परमाणुओं के तरतीब पाने पर रूप कायम हो जाते हैं । चूंकि आकाश के परमाणु इस तरीके पर तरतीब नहीं पा सकते इस लिये आकाश को रूप से विहीन और रूपवान् होने के नाकाबिल सवाल किया जाता है । लेकिन इस खपाल में किसी कदर तरमीम की जरूरत है । दफा ९ ३ में हम बयान कर चुके हैं कि त्रिकुटी की रचना होते वक्त आकाश वहाँ के मसाले को एक अलहदा तह की सूरत में प्रकट हुआ जिसकी वजह से उसका त्रिकुटी के नीचे एक अलहदा मंडल कायम है इस लिये बलिहाज उस मंडल के ( मंडलाकार रूप के ) आकाश मजमूई तौर पर रूपरहित नहीं है । रचना के इंतजाम के अंदर इस तत्त्व के जिम्मे ऊँचे दर्जे की शक्तियों के लिये वाहन यानी सवारी देने का काम सुपुर्द है यानी ऊँचे दर्जे की शक्तियाँ आकाश तत्त्व की मारफत नीचे स्थानों में उतर कर आती हैं ।

       आकाश के बाद चाक्री तत्वों में प्रकृति की सबसे ज़्यादा सूक्ष्म अवस्था अग्नि है । अग्नि तत्व ( ताप ) के परमाणुओं से रूप की उत्पत्ति हुई है यानी शक्ति आकाश तत्त्व के द्वारा उतर कर ( उसके साथ पूरे तौर से तअल्लुक रखते हुए लेकिन उस पर कोई असर न डालते हुए ) अग्नि तत्व के परमाणुओं को तरतीय देती है और रोशनी की धारें , जो आकाश तत्व की मारफत चारों तरफ फैल रही हैं , उसको दर्शनेंद्रिय तक पहुँचा कर हमें रूप का ज्ञान दिलाती हैं । रोशनी की धारों के जरिये रूप के दर्शनेंद्रिय तक पहुँचने की कारवाई किसी कदर उसी ढंग पर होती है जैसी कि हया की मारफत अवसरों के रूप में पानी के एक मुकाम से दूसरे मुकाम में पहुँचने की निसबत देखने में आती है । रोशनी से आकाश तत्व के सिवाय और सब तत्व खारिज होने पर पिंड देश की खालिस बिजली रह जाती है जिसका इन आँखों द्वारा कोई ज्ञान हासिल नहीं हो सकता अलपत्ता सुरत के जगने पर उसके प्रकाश का अनुभव होता है । इस सृष्टि में जितने भी तारागण , सूर्य , विजली वगैरह के प्रकाश हम को नजराई देते हैं उन सब के अंदर आकाश ( ईथर ) के परमाणुओं यानी अयनों के अलावा दूसरी किस्मों के परमाणु बकसरत मिले रहते हैं और इन दूसरी किस्मों के परमाणुओं ही की वजह से ( जो ताप अवस्था में बमुजिब दफा ११ के बयान के विभक्त अवस्था को प्राप्त साधारण परमाणु हुआ करते हैं ) प्रकाशों में भेद कायम होता है । इस लिये जाहिर है कि दर्शनेंद्रिय के मुकारिले श्रवणेंद्रिय ज्यादा झीनो ( लतीफ ) है और जितने भी शब्द पैदा होते हैं उन सब का गुप्त ( अव्यक्त ) तौर पर रूप के साथ तमलुक रहता है । अग्नि तत्व के बाद दर्जा वायु का आता है । जब माद्दा वायु तत्त्व अवस्था में प्रवेश करता है तो यह नासिका इंद्रिय का विषय बन जाता है ।


No comments:

Post a Comment

१२४ - रचना की दया किस रारज से हुई

     १२४ - रचना की दया किस रारज से हुई ?   कुल मालिक एक ऐसा चेतन सिंधु है कि जिसके परम आनंद व प्रेम का कोई वार पार ...