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६८ - रूप की उत्पत्ति ।
यह बयान कर चुके हैं कि सुरत का निज भंडार सच्चा कुल मालिक है और वह अपार और सबका मुहीत ( परिवेष्टक ) है यानी जैसे भासमान के अंदर कोई बादल का टुकड़ा होता है ऐसे तमाम रचना उसके अंदर एक तिल की तरह कायम है । जितने भी रूप रचना में प्रकट हैं वे सब कुल मालिक के उस अपार स्वरूप की छाप या नकल है जो उसने रचना की आदि में धारण किया क्योंकि रूप माखिर उस तरतीब ही को कहते हैं कि जिसमें शक्ति किसी मसाले को आरास्ता करती है । और चूंकि मादि शक्ति कुल मालिक से प्रकट हुई और रचना की दूसरी सब शक्तियाँ , जिनसे रचना में रूप आरास्ता हुए , आदि शक्ति ही से प्रकट हुई हैं इस लिये रचना के सब रूप कुल मालिक के मादि रूप की नकल मानने होंगे ।
६९ - आदि रूप ।
पह दुरुस्त है कि कुल मालिक को असीम यानी लामहद्द कहने पर उसके अंदर रूप की कल्पना करने के लिये गुंजाइश नहीं रहती लेकिन उस अपार सिंधु के अंदर आदि चेतन धार के प्रकट होने के सिलसिले में जो प्रथम प्राकार कायम हुआ अगर उस पर खपाल करके कुल मालिक में रूप की कल्पना की जाये तो गलत न होगा । यह बयान कर चुके हैं कि धार प्रकट होने से पहले भंडार के अंदर हिलोर वाकै हुई और भंडार के जिस हिस्से में हिलोर नाकै हुई वह अब्बल मरकश पानी शक्ति का सबसे पहला क्रियावान् केंद्र बना और कदम बढ़ कर जरूर है ।
७० - स्वामी शब्द ।
ऊपर को दफा में प्रथम क्रियावान् केंद्र के रूप की निसबत तहकीकात यह मालूम करने की गरज से की गई कि आदि हिलोर या मौज के संग जो शब्द प्रकट हुआ उसकी इंसानी बोली में नकल करने से क्या शब्द पनता है । इसके लिये ऊपर बयान किये हुए उसूल के बमूजिब अव्वल हमको अपने शब्द उच्चारण के औजार यानी मुँह को किसी कदर अंडाकार शक्ल में बदलना होगा और बाद में ऐसा शब्द उच्चारण करना होगा कि जिससे मुँह अंदर के रुख बंद होने लगे । चुनाँचे ' स्वामी ' शब्द के उच्चारण करने में जो हालतें होती हैं उनकी जाँच करने से मालूम होता है कि इसके पहले हिस्से यानी ' स्वा ' के उच्चारण करने पर मैंह के अंदर अंडाकार खला बन जाता है और इसके दूसरे भाग यानी ' मी ' के उच्चारण करने में मुँह अंदर की जानिव खंच के साथ बंद होता है ।
यह कहना बेजा न होगा कि राधास्वामी नाम को ध्वन्यात्मक नाम यानी चेतन शक्ति के आदि इजहार के संग प्रकट होने वाला शब्द साबित करने में यहाँ पर बहुत सी बातों को तशरीह रह गई है लेकिन जो कुछ भी ऊपर इस सिलसिले में बयान हुआ है उसकी रू से किसी कदर हौसले के साथ कहा जा सकता है कि हरचंद हमारा सुबूत मुकम्मल नहीं है मगर महज अयुक्त यानी घेठिकाने भी नहीं है और पवित्र नामों के बयान में जो कुछ महस महापुरुषों के उपदेश यानी प्रकट किये हुए भेद की बुनियाद पर कहा जाता है उससे यह सुप्त एक कदम बढ़ कर जरूर है । मलाया इसके खपाल रखना चाहिए कि इस किस्म के सुबूत कोई भारी वकअत नही रखते क्योंकि सिर्फ़ युक्ति के आधार पर पेश किये हुए ज़बानी सुबूत अाखिर जवानी जमाखर्च ही होते हैं और हर जगह तजस्वे व परीक्षा ही से ठीक काम चलता है इस लिये हम निहायत ज़ोर के साथ कहेंगे कि इस परम पवित्र नाम की निसबत तहकीकात का सिलसिला आज़मायश के बगैर हरगिज़ खतम न किया जावे । हर किसी को थोड़े ही तजसले के बाद मालूम हो सकता है कि इस नाम की बरकत से कैसा ज़बरदस्त सिमटाय मुरत की बैठक के मुकाम पर हो सकता है और कैसी भारी सहायता बहिर्मुखी व मायिक वृत्तियों के रोकने में मिल सकती है बशर्ते कि इसका सुमिरन ठीक तरीके पर सुरत यानी रूह की ज़बान से किया जाये ।
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