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११४ - मनुष्य की मृत्यु का कायदा ।
चकि मृत्यु वाले होने के लिये यह लाजिमी है कि जीव के सब के सब मायिक पर्द - स्थूल व सूक्ष्म - जो उसने पिंड देश में धारण कर रक्खे हैं , नाश को प्राप्त हों इस लिये जाहिर है कि ऐसा जीव , जिसकी मुरत का घाट पिंड देश की चोटी के स्थान से मुताबिकत रखता है , उन सब मायिक पदी से जुदा करने के लिये ब्रह्मांड देश में खींचा जावे । यह खिंचाव , जिसको मौत का हुक्म कहना चाहिए , सहसदलकबल से जारी होता है जहाँ का धनी नारायण या निरंजन है । यह पुरुप इस लिये ब्रह्मांड के ईश्यर का सब से नीचे दर्जे का ( विराट ) रूप होने के अलावा कालपुरुष भी है । ब्रह्मांड के निचले तीन स्थान यानी विष्णु , ब्रह्मा और महादेव के मुकाम मनुष्य - शरीर के नाभि , इंद्रिय और मूलाधार चक्रों की तरह , जो उनकी छाया है , ज्यादातर ब्रह्मांड के निचले हिस्से की मायिक रचना को सँभाल में लगे हुए हैं । इससे मालूम होता है कि उनके जिम्मे सिर्फ स्थिति , उत्पत्ति और ऐसे बेकार मसाले का इसराज , जो स्थिति और उत्पनि में बाधक हो , यही तीन काम हैं और इस लिये उनको यह इख़्तियार हासिल नहीं । कि वे मनुष्य - शरीर के नाश का हुक्म जारी कर सकें या ऐसे हुक्म की बजाभावरी कर सकें । इस किस्म के अहकाम ज्योति और नारायण ही से जारी होते हैं क्योंकि वे ही ब्रह्मांडी मन और इच्छा है और वे ही जीवों की किसमत का बंदोबस्त कर सकते हैं । चुनांचे पालमेसगीर ( मनुष्य - शरीर ) के अंदर मनुष्य के मन व इच्छा ही के हुक्म से हर एक काम होता है । हमने दफा ९ २ में यह बयान किया था कि प्रथम धार कालपुरुप को , जो सत्तलोक से बरामद हुई , हरचंद आला दर्जे की शक्ति से परिपूर्ण थी लेकिन रचनात्मक शक्ति से बिलकुल खाली थी और दूसरी धार , जो निर्मल चेतन देश की सुरत धार की शाखा थी , केंद्र कायम करने की शक्ति लिये हुए थी । चुनाँचे पहली यानी कालधार जीब के मायिक पदों के नाश करने का इंतजाम करती है और दूसरी धार छिपे हुए बीजों को अपना इजहार करने और परवरिश पाने के लिये चेतनता बादशती है ।
चुनाँचे मौत के वक्त सहसदलवल से संहार करने वाली एक धार प्रकट हो कर मनुष्य के तमाम मायिक पदों को नाश कर देती है जिसके बाद दूसरी धार ऊपर को जानिब सुरत को अपने सम्मुख खींचती है । तीसरे तिल के मुकाम पर एक देवता , जिसको धर्मराय या यमराज कहते हैं , मुकीम है और वह ऊपर के लेख के अनुसार कालपुरुष के अहकाम को बजा लाता है । ज्यादा सही लफ्जों में यों कहना चाहिए कि धर्मराप एक ऐसा केंद्र है कि जिसकी मारफत काल की धारा अपनी संहार क्रिया अमल में लाती ऊपर बयान किये हुए अमल के वजिव स्थूल शरीर का संहार होने पर जीव के स्थूल मायिक पदें तो दूर हो जाते हैं लेकिन उसके मन व इच्छाओं पर इसका कोई असर नहीं होता क्योंकि उसका मन खुद कालपुरुष ही का अंश है । इस लिये तमाम सूक्ष्म वासनायें , सूक्ष्म इंद्रियाँ और मन प्रांड को जानिय खिंचाव होने पर सुरत के संग जाते हैं और अगर ये संसारी खयालात व हवसों से लबरेज होते हैं और संसार के मोह य बंधन मन के अंतर के अंतर से खारिज नहीं किये गये हैं तो ये सब सुरत के लिये मारी बोझ बन जाते हैं जिसकी वजह से सुरत को ब्रह्मांड के नाके से गुजरने में सरत तकलीफ होती है क्योंकि ब्रह्मांड में दाखिल होने के लिये उसको नाके के निहायत सूक्ष्म सूराख में से गुजरना होता है और सूराख से गुजरने के काबिल होने के लिये उसको निहायत सूक्ष्म बनना पड़ता है । मृत्यु के समय जीव को जो पहला दंड मिलता है वह यही तकलीफ है । इसकी वजह से हरचंद सुरत के ऊपर से बुरे कर्मों का बहुत कुछ बोझ उतर जाता है ताहम उसको ऐसी निर्मलता प्राप्त नहीं हो जाती कि वह ब्रह्मांड में वास पाने के काबिल हो जाये क्योंकि संसारी मोह वगैरह के निहायत झीने वीज सुरत के संग ब्रह्मांड में चले जाते हैं ।
ब्रह्मांड में दाखिल होने पर सुरत को दूर से ज्योति का दर्शन प्राप्त होता है और अगर उसके संग पिंड देश के मोह के बीज मौजूद हैं तो यह ज्यादा अरसे तक यहाँ ठहरने नहीं पाती । ज्योति के चेतन प्रकाश की मारफत संसारी पासनाओं के पीज फौरन् जिंदा हो कर अपना इजहार करने लगते हैं और चूंकि रचना के इंतजाम की रू से ये पीज प्रांड देश में रहने के लायक नहीं है इस लिये उनके जोर पकड़ते ही गुरत पड़े पेग के साथ नीचे की जानिय धकेल दी जाती है । धकेले जाने पर सुरत मप अपनी सारी वासनाओं और व्याहिशों और मन के , प्रमोड के पंदे में जो भारी मैदान है उसमें मा गिरती है और कुछ अरसे तक पहाँ बेहोश गुपचाप पड़ी रहती है । बाद में धर्मराय के उन महकाम के बमूजिय , जो उसने उसकी मौत के पास सादिर किये थे , सुरत को जन्म मिलता है । मादा जन्म मिलने के कापदी की तारीह हम मागे पलकर इस पुस्तक के फर्म भाग में करेंगे ।
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